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346 :: मूकमाटी-मीमांसा
को देने लगता है तो कुम्भकार बोल पड़ा :
"आज दान का दिन है / आदान-प्रदान लेन-देन का नहीं,
समस्त दुर्दिनों का निवारक है यह / प्रशस्त दिनों का प्रवेश-द्वार ।" (पृ. ३०७ )
इससे यह भाव निकलता है कि दान की प्रवृत्ति सभी में समान रूप से विद्यमान रहती है। शिल्पी के पास देने को कलश ही था, सो उसने मोल के बिना ही दे दिया। सेठ का सेवक कुम्भ को लेकर चला जाता है। सेठ के घर उस पर स्वस्तिक अंकित किया जाता है। हाथ में लेकर उसके ऊपर श्रीफल रखकर उसे अष्ट पहलूदार चन्दन की चौकी पर सेठ मंगल कलश के रूप में रख देता है। इसके पश्चात् मुनिश्री के आहार विधि की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। महाकवि स्वयं सन्त हैं, आचार्य हैं, अत: आहार की विधि का बहुत विस्तृत वर्णन करते हैं। एक-एक विधि को काव्य रूप प्रदान कर उसे सहज गम्य बना देते हैं । इसके पश्चात् और भी उपकथाएँ आती हैं। कुम्भ से स्वर्ण कलश एवं रजत की थाली की ईर्ष्या, कुम्भ पर लांछन लगाते हुए संवाद, आतंकवाद द्वारा सेठ को परिवार सहित समाप्त करने की योजना, सेठ का वहाँ से परिवार सहित कुम्भ को लेकर निकल जाना, मार्ग में हाथियों द्वारा रक्षा एवं उनकी भयंकर गर्जना, गर्जना का जंगल के अन्य विषैले जीवों पर प्रभाव, प्रलंयकारी वर्षा, नदी का वेग, नदी को पार करने के लिए कुम्भ का सहारा, भँवर का प्रकोप, नदी से सेठ के परिवार को डुबोने की प्रार्थना, और भी विभिन्न उपसर्ग, सेठ को छोड़कर परिवार के सदस्यों का आतंकवाद के सामने समर्पण की इच्छा, लेकिन नदी द्वारा आत्म समर्पण का विरोध द्रष्टव्य है :
"नदी ने कहा तुरन्त, / उतावली मत करो ! / सत्य का आत्म-समर्पण और वह भी / असत्य के सामने ? / हे भगवन् ! / यह कैसा काल आ गया,
क्या असत्य शासक बनेगा अब ? / क्या सत्य शासित होगा ?" (पृ. ४६९ )
इसी तरह और भी कथानक हैं । अन्त में आतंकवाद का अन्त होता है और होता है अनन्तवाद का श्रीगणेश
। अन्त में नदी के उसी तट पर कुम्भ का आगमन होता है। सेठ का परिवार भी नदी पार उतर जाता है। फिर उस कुम्भ कुम्भकार का अभिवादन उसी स्थान पर किया जहाँ वह कुम्भकार माटी लेने आया था । इस तरह मूक माटी की महायात्रा पूरी होती है । और महाकाव्य की सुखान्त समाप्ति हुई ।
समीक्षा : वर्तमान शती में 'मूकमाटी' किसी जैनाचार्य द्वारा निबद्ध हिन्दी का प्रथम महाकाव्य है। आचार्य विद्यासागरजी महाराज इस काव्य के निर्माता हैं, जो परम सन्त हैं तथा सर्वाधिक समादृत दिगम्बर जैनाचार्य हैं । इसीलिए यह काव्य ऐसी लेखनी से निबद्ध है जो स्वयं पावन है तथा चिन्तन-मनन के विचारों से ओतप्रोत है। कुछ समीक्षक कह सकते हैं। कि यद्यपि संस्कृत काव्य ग्रन्थों में महाकाव्य होने के जो लक्षण लिखे हैं, उनमें से बहुत कम लक्षण 'मूकमाटी' में मिलते हैं। सर्ग भी केवल चार हैं तथा छन्द परिवर्तन भी प्रस्तुत महाकाव्य में नहीं हो सका है। इसके अतिरिक्त रस एवं अलंकारों की दृष्टि से भी ‘मूकमाटी' उतना सफल काव्य नहीं बन सका है।
लेकिन 'मूकमाटी' तो एक आध्यात्मिक महाकाव्य है, अत: उसमें संस्कृत एवं हिन्दी के महाकाव्यों के लक्षण कहाँ से मिल सकते हैं ? महाकाव्य की नायिका मूक माटी है, जिसको शिल्पी द्वारा नया जन्म प्राप्त होता है । उसकी अग्नि परीक्षा होती है, जिसमें वह खरी उतरती है । महाकाव्य की कथावस्तु तो बहुत संक्षिप्त है लेकिन दार्शनिक विषयों का वर्णन-प्रतिपादन इतने सहज ढंग से हुआ है कि दर्शन भी कथा के रूप में हो गया है। वैसे यह कोई राजा अथवा श्रेष्ठी के जीवन को प्रतिपादित करने वाला काव्य नहीं है। यह तो पूरे जैन तत्त्व दर्शन को उजागर करने वाला महाकाव्य है जिसकी एक-एक पंक्ति स्मरण करने योग्य है, मनन करने योग्य है तथा जीवन में उतारने योग्य भी है। इस प्रकार के महाकाव्य कोई महासन्त ही लिख सकते हैं जिन्होंने अपने जीवन में अध्यात्म को आत्मसात् कर लिया है।