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________________ मूकमाटी-मीमांसा : : 331 'दलितों का मसीहा' कह सकते हैं । आचार्य श्री विद्यासागरजी की दृष्टि में संसार सम्पूर्ण रूप से त्रस्त है, पीड़ित है और आकुल-व्याकुलताओं से ग्रस्त है । इस पीड़ा का कारण है प्राणियों में परस्पर वैर भाव । यह वैर भाव विजातियों में ही नहीं बल्कि सजातियों में भी देखा जाता है। छोटा बड़े के द्वारा, बड़ा और बड़े के द्वारा पद दलित किया जाता है, यहाँ तक कि मृत्यु को भी प्राप्त कराया जाता है । 'मछली' का यह कथन कितना सटीक है : " "क्या पता नहीं तुझको ! / छोटी को बड़ी मछली / साबुत निगलती है यहाँ और/ सहधर्मी सजाति में ही / वैर-वैमनस्क भाव / परस्पर देखे जाते हैं ! श्वान, श्वान को देख कर ही / नाखूनों से धरती को खोदता हुआ ता है बुरी तरह ।" (पृ. ७१) आचार्यश्री का चिन्तन है कि सभी जीवों पर संकट आते हैं और सभी अपनी शक्ति के अनुसार उसका निवारण करते हैं पर फिर भी मनुष्य एक ऐसा विवेकशील प्राणी है जो अपने तथा दूसरों के संकटों को आसानी से दूर करने में समर्थ है। मनुष्य चाहे तो अपनी बुद्धि और शारीरिक सामर्थ्य से अपनी और दूसरों की रक्षा कर सकता है। जीव रक्षा उसका कर्त्तव्य है, उसका धर्म भी है । किन्तु आज यह रक्षा उपेक्षित है। हम चाहते हैं सुरक्षा मात्र अपनी और अपनी भौतिक सम्पदा की । आज यह स्वार्थपूर्ण संकीर्णता ही सब अनर्थों की जड़ बन गई है। मैं दूसरों के लिए क्यों चिन्ता करूँ, मुझे बस मेरे जीवन की चिन्ता है । 'मैं' और 'मेरा' आज का सारा व्यवहार यहीं तक सीमित हो गया है। 'दि हार्ट ऑफ मैन' कृति में फ्रॉम ने लिखा है : "दूसरे व्यक्ति (या दूसरे किसी सजीव प्राणी) पर अपना सम्पूर्ण प्रभुत्व प्राप्त करने में मिलने वाला आनन्द ही परपीड़न-वृत्ति का सार है । इसी बात को दूसरी तरह से यों कहा जा सकता है कि परपीड़न का उद्देश्य मनुष्य को एक चीज़ के रूप में बदलना है, सजीव को निर्जीव में बदलना है, क्योंकि पूर्ण और परम नियन्त्रण से सजीव प्राणी जीवन का एक सारभूत गुण खो देता है - स्वतन्त्रता । " किन्तु हमने तो स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भी लड़ना नहीं छोड़ा । ही भावना पददलित होने और उच्च भावना पद दलित करने में कारण बनती है । यहाँ उच्च भावना को स्वयं को बड़ा मानने के अहंकार से समझें, अन्यथा न लें। आचार्य श्री विद्यासागरजी का भी यही मानना है कि उच्च पद पर बैठे जन या उच्च पदाभिलाषी जन दूसरों को पद दलित करते हैं तथा इस हेतु पापाचरण भी करते हैं । वे नागराज के कथन के माध्यम से भावना भाते हैं कि हम पदहीन ही बने रहें, क्योंकि जितने भी पद हैं वे सब विपत्तियों के स्थान हैं। पद-लिप्सा का यह विषधर हमें न सूँघे । आचार्यश्री के ही शब्दों में : " एक बात और कहनी है हमें / कि / पदवाले ही पदोपलब्धि हेतु पर को पद-दलित करते हैं, / पाप - पाखण्ड करते हैं । प्रभु से प्रार्थना है कि / अपद ही बने रहें हम ! जितने भी पद हैं / वह विपदाओं के आस्पद हैं, पद-लिप्सा का विषधर वह / भविष्य में भी हमें न सूँघे बस यही भावना है, विभो !" (पृ. ४३४ ) 'मूकमाटी' में आचार्यश्री ने शिल्पी के एक पद द्वारा कहलाया है कि मैं पदाभिलाषी बनकर दूसरों पर पैर न रखूँ, किसी प्रकार का उत्पात न करूँ और कभी भी किसी को पद - दलित नहीं करूँ : "पदाभिलाषी बनकर / पर पर पद-पात न करूँ, / उत्पात न करूँ,
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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