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________________ 330 :: मूकमाटी-मीमांसा आचार्य श्री विद्यासागरजी का सम्पूर्ण साहित्य मानवीय उत्थान की परम गाथा है । वे इस युग को दो रूपों में, दो मनुष्यों को आधार मान कर शव और शिव रूप की कल्पना करते हैं। अपनी सुप्रसिद्ध कृति 'मूकमाटी' में वे लिखते "इस युग के/दो मानव/अपने आप को/खोना चाहते हैंएक/भोग-राग को/मद्य-पान को/चुनता है;/और एक योग-त्याग को/आत्म-ध्यान को/धुनता है।/कुछ ही क्षणों में दोनों होते/विकल्पों से मुक्त ।/फिर क्या कहना !/एक शव के समान निरा पड़ा है, और एक/शिव के समान/खरा उतरा है।" (पृ. २८६) इससे स्पष्ट है कि मद्यपानादि व्यसन-भोगों में रत शव-परिणामी मनुष्य आचार्यश्री को इष्ट नहीं हैं, उन्हें तो योगी, त्यागी और आत्मध्यानी शिव-परिणामी ही इष्ट हैं। और यही वह स्तर है जिनसे उनके मन एवं उनकी कृतियों में छिपे दलितोत्थान के स्वर स्पष्ट सुनाई देते हैं। हम यहाँ आचार्य श्री विद्यासागर की 'मूकमाटी 'में आगत दलितोत्थान के स्वरों की अनुगूंज सुनें, इसके पूर्व हमें 'दलित' शब्द के अर्थ /भाव को जान लेना आवश्यक है। 'दलित' शब्द की व्युत्पत्ति ‘पाइअ सद्दमहण्णओ' (प्राकृत शब्द कोश-सं. पं. हरगोविन्ददास टी. सेठ) के अनुसार संस्कृत शब्द 'दल' से हुई है, जिसका अर्थ है- विकसना, फटना, खण्डित होना, द्विधा होना, चूर्ण करना, टुकड़े करना, विदारना, सैन्य, लश्कर, पत्र, पन्ती आदि । संस्कृत में ही 'दलित' शब्द का प्रयोग ‘विनष्ट' करने या 'विनाश किया हुआ' के अर्थ में मिलता है, यथा-"दलितं हृदयं गाढोद्वेगं द्विधा तु न विद्यते''- अर्थात् वेदनाओं के कारण हृदय के टुकड़े होते हैं, नाश नहीं। 'वृहद् हिन्दी कोश' के अनुसार 'दलित' का अर्थ रौंदा, कुचला, दबाया हुआ पदाक्रान्त है। 'हिन्दी साहित्य में दलित चेतना' (पृ. १८) में डॉ. आनन्द वास्कर ने उल्लेख किया है कि यह ध्वनित होता है कि जो अपने पद से च्युत है, वह दलित है। यद्यपि संस्कृत एवं अन्य भारतीय भाषाओं में यह शब्द इसी रूप में प्रचलित होता रहा किन्तु सन् १९३३ के दरम्यान उस समय की सरकार ने जो 'जातीय निर्णय' ले लिया उसमें 'डिप्रेस्ड क्लासेस' शब्द का प्रयोग किया है जिसका अर्थ है ‘पद दलित' । वास्तव में पद दलित' शब्द 'दलित' शब्द के लिए ही पर्यायवाची शब्द के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। इसी समय भारत में समाजवादी विचारधारा का प्रादुर्भाव हुआ और इस विचारधारा के अन्तर्गत आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से जो वर्ग दबा हुआ, कुचला हुआ एवं शोषित है, ऐसे वर्ग को महत्त्व प्राप्त हुआ और उस वर्ग को ही 'दलित वर्ग' के रूप में देखा गया । कालान्तर में यह शब्द शूद्रों, अस्पृश्य, अन्त्यज एवं महार जाति विशेष के लिए भी प्रयोग में आने लगा तथा इस समुदाय के उत्थान की बात करने वालों को 'दलित नेता, इस वर्ग से सम्बन्धित साहित्य सर्जकों को 'दलित कवि' या 'दलित लेखक' तथा सम्बन्धित साहित्य को 'दलित साहित्य' कहा जाने लगा। वर्तमान भारतीय राजनीति में अब 'दलित' शब्द स्थायी भाव की तरह जम गया है तथा इस वर्ग के उत्थान के लिए शासन-प्रशासन पूरी तरह से सक्रिय है। किन्तु जब हम आचार्य श्री विद्यासागरजी के सोच एवं साहित्य को देखते हैं तो पाते हैं कि वे 'दलित' शब्द को व्यापक सन्दर्भो एवं अर्थों में देखते हैं। उनकी दृष्टि में व्यक्ति के द्वारा प्रताड़ित व्यक्ति दलित है, समाज द्वारा उपेक्षित प्राणी दलित है, धर्म मार्ग से च्युत व्यक्ति दलित है, परमात्म पद से च्युत आत्मा दलित है, आतंकित मानसिकता रखने वाला व्यक्ति दलित है, अपराधी दलित है, पराधीन दलित है, हीनभावना से ग्रस्त व्यक्ति दलित है। इन सब दलितों के उत्थान की प्रेरणा, दिशा दर्शन, मार्गदर्शन उनकी 'डूबो मत, लगाओ डुबकी, 'पूर्णोदय शतक, 'प्रवचन प्रदीप, ‘प्रवचनामृत,' 'सर्वोदय शतक, 'प्रवचन प्रमेय प्रवचनिका 'गुणोदय, ‘पावन प्रवचन' तथा 'निजानुभव शतक' इत्यादि कृतियों में प्रचुर मात्रा में मिलता है। वे तो 'नर्मदा का नरम कंकर' कृति में कंकर को भी शंकर बनाने की बात करते हैं । इस प्रकार हम उन्हें वास्तविक अर्थों में
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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