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________________ xxxiv :: मूकमाटी-मीमांसा है । महाराजश्री ठीक कहते हैं कि 'जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि' । इसके आगे का सत्य यह है कि 'जहाँ न पहुँचे कवि, वहाँ पहुँचे स्वानुभवी' । यह स्व - अनुभव 'चेतना के गहराव' आता है। बाहर का अनुभव आलंकारिक और बिम्बात्मक भाषा में उभर सकता है, पर 'चेतना के गहराव' का अनुभव प्रतीक भाषा में ही उभरता है, उभर सकता है। प्रतीक भाषा के साथ-साथ शब्दों से क्रीड़ा करने की प्रवृत्ति भी इन्हीं रचनाओं से फूटती लक्षित होती है। वाल्मीकि, कालिदास और भवभूति भी शब्दक्रीड़ा करते हैं, इसके लिए उनकी रचनाएँ देखी जा सकती हैं। देखिए, 'चेतना के गहराव में' (१९८८ में प्रकाशित संग्रह की 'तुम कैसे पागल हो' नामक कविता) से यह शब्द क्रीड़ा किस प्रकार अपना मार्ग ढूँढ़ती है : " रेत रेतिल से नहीं / रे ! तिल से / तेल निकल सकता है निकलता ही है विधिवत् निकालने से / ... ये सब नीतियाँ सबको ज्ञात हैं / किन्तु हित क्या है ? / अहित क्या है ? ea कस में निहित है कहाँ ज्ञात है ? / किसे ज्ञात है ? मानो ज्ञात भी हो तुम्हें / शाब्दिक मात्र ! / अन्यथा अहित पन्थ के पथिक/ कैसे बने हो तुम / निज को तज जड़ का मन्थन करते हो/ तुम कैसे पागल हो / तुम कैसे 'पाग' लहो ?” अभ्यासरत जीवन ही रचना का उत्स उपर्युक्त उद्धृत रचना को देखें । शब्द क्रीड़ामयी रेखांकित पंक्तियों को देखें । कह सकता है कोई कि यह शब्द क्रीड़ा सायास है ! यहाँ अक्रीड़ पंक्ति से सक्रीड़ पंक्ति स्वतः स्फूर्त है । 'मूकमाटी' की कथावस्तु, उसकी प्रतीक भाषा और उसमें लक्षित शब्द क्रीड़ा का इतिहास एक क्रम से स्वयं आता गया है। 'मूकमाटी' की प्रकृति के परमाणु इन पूर्ववर्ती रचनाओं में विद्यमान हैं। इसकी आलोचना के लिए पूर्ववर्ती रचनाओं का मनन- मन्थन आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है । इसलिए यह पूछने की आवश्यकता नहीं है कि प्रकान्त विषयवस्तु की प्रेरणा का बीज कहाँ निहित है ? साधक के अभ्यासी जीवन में ही उसका उत्स है। रचना आत्माभिव्यक्ति ही नहीं, सम्प्रेषण भी है वार्तालाप में डॉ. माचवे ने एक दूसरा सवाल भी खड़ा किया गया है कि आचार्यश्री कविता को आत्माभिव्यक्ति मानते हैं या सम्प्रेषण ? पर इसका उत्तर लेने या देने से पूर्व पहली जिज्ञासा पर थोड़ा और विचार कर लेना चाहिए। 'मूकमाटी' का विकास उनके तपोरत उस स्वभाव से हुआ है जहाँ वे संघर्षशील हैं, मूल्यों और मान्यताओं को जीते हुए अपमूल्यों के गुरुत्वाकर्षण से जूझ रहे हैं, तभी 'नर्मदा का नरम कंकर' निकला । उसी संघर्ष का स्वर है ' डूबो मत, लगाओ डुबकी'। पौद्गलिक कर्मों का लबादा ओढ़े रहोगे तो वज़नदारी डुबो देगी, इसे फेंक कर हलकें बनो और तदर्थ डूबकर तिर जाओ, डूबकर मान्यताओं और मूल्यों को जिओ । 'चेतना के गहराव में' उतरो । इस संग्रह में भी 'तोता क्यों रोता ?' कविता का रहना 'मूकमाटी' के विकास की पूर्ववर्ती भाव श्रृंखला की करामात है । महाराजश्री जिसका प्रवचन करते हैं, उसे जीते हैं और जिसे जीते हैं, अनुभव करते हैं, उसे लिखते हैं । इसीलिए वह असरकारी होता है। उसमें आवे ज्वार-भाटे होते हैं, इसीलिए वे रूढ़ छन्दों के ढाँचे को अपर्याप्त पाकर तोड़ देते हैं और मुक्त छन्द पकड़ते हैं । 'तोता क्यों रोता ?' का 'मूकमाटी' के सन्दर्भ में महत्त्व 'तोता क्यों रोता ?' एक दीर्घ प्रगीत या लम्बी रचना है। इसमें 'मूकमाटी' का पूर्वरूप लक्षित होता है। इसमें
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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