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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: xxxiii 'डूबो मत, लगाओ डुबकी' का साक्ष्य इस सन्दर्भ में ‘डूबो मत, लगाओ डुबकी' (१९८४ में प्रकाशित संग्रह की 'डूबो मत लगाओ डुबकी' कविता ) का भी अनायास स्मरण हो आता है । यह अत्यन्त भावावेगमयी दार्शनिक रचना है । जिसमें रचयिता का स्वभाव बोलता है, उसकी ऐसी ही परिणति होती है । रचनाकार कहता है : “यह बात सत्य है/कि / डुबकी वही लगा सकता/जो तैरना जानता है जो नहीं जानता / वह डूब सकता है / डूबता ही है । डूबना और डुबकी लगाने में / उतना ही अन्तर है जितना / मृत्यु और जीवन में । " डुबकी लगाता है गोताखोर, गहरे में गहरी वस्तु की उपलब्धि के लिए, पर यदि वह तैरना नहीं जानता तो लक्ष्य प्राप्ति के साथ ऊपर आ नहीं सकता । तैरने के लिए जैसे आरम्भ में तुम्बी जैसी किसी वस्तु का अवलम्ब आवश्यक है । भी डुबकी है, पर निरवलम्ब । निरवलम्ब समाधि सावलम्ब समाधि के अभ्यास से ही पाई जा सकती है। अत: सावलम्ब ध्यान आवश्यक है । तैरना जानना आवश्यक है डुबकी लगाने के लिए, अन्यथा साधक डूब जायगा । डुबकी लक्ष्य प्राप्ति के बाद ऊपर उठ जाने के लिए लगाई जाती है। डूबता वह है जिस पर आवरण का लबादा चढ़ा हुआ है। तिरता वह है, ऊपर उठता वह है जो आवरण का नाश कर हलका हो जाता है। ध्यान इसी हलके होने का साधन है । यह रचना भी अभ्यासी के अभ्यासरत स्वभाव और अनुभव से फूटी है, इसीलिए उसमें प्रसाद, प्रवाह, आवेग और प्रांजलता है। डुबकी लगाने वाले के लिए तैरना जानना पड़ता है पर डुबकी लगाते समय तैरना और तैरने का अभ्यास हो जाने के बाद सहारे गृह म्याग भी आवश्यक है, अन्यथा डुबकी के लिए अपेक्षित एकतानता प्रतिहत हो जायगी । साधक के लिए लक्ष्य प्राप्ति के निमित्त निर्विकल्पक का और निर्विकल्पक के लिए सविकल्पक का सहारा लेना पड़ता है, पर इन सहारों को उत्तरोत्तर छोड़ना भी पड़ता हैं । कारण, अन्ततः ये भी बाधक ही रहते हैं। अभिप्राय यह कि साधना बेला की अनुभूति की ये रचनाएँ स्व-भाव का स्वाभाविक समुच्छलन हैं। ये रचनाएँ अभ्यास साध्य या सायास नहीं हैं। 'तोता क्यों रोता ?' का साक्ष्य आचार्यश्री प्रतीक ही भाषा में बोलते हैं । कहा जाता है कि 'नई कविता' बिम्बों में बोलती है, पर रहस्यवादी रहस्यदर्शी प्रतीकों में बोलता है। प्रतीक भाषा की सर्वोच्च शक्ति है, उसमें संकेत और व्यंजना की असीम क्षमता है | आलंकारिक भाषा से बड़ी है वर्ण्य की स्वभावमयी बिम्बात्मक भाषा और उससे भी बड़ी है वर्ण्य-दृश्य की तह में निहित अदृश्य को सम्प्रेषित करने वाली प्रतीक भाषा । आचार्यश्री इसी भाषा में बोलते हैं। देखिए 'तोता क्यों रोता?' (‘हिन्दी दिवस' – १४ सितम्बर ' ८४ को प्रकाशित संग्रह) में सब कुछ प्रतीक ही तो है । दाता का प्रतीक वृक्ष, ग्रहीता का प्रतीक अतिथि की पात्रता, इनका उनका हड़प कर दान देने का दम्भ भरने वाले अकर्मण्य का प्रतीक तोता और फल को बन्धन से मुक्ति दिलाने में सहायक सपूत का प्रतीक पवन । पात्र के प्रति निरभिमान समर्पण भी बन्धनमुक्ति का एक उपक्रम ही है। तोता अकर्मण्य का प्रतीक है, अत: दान का मर्म समझ कर वह ग्लानि से भर उठा है, रोता है । उसे भी वृक्ष की तरह तपोरत होकर सफल होना है ताकि सत्पात्र के प्रति नि:स्वार्थ आत्मविसर्जन कर - मुक्त हो । 'चेतना के गहराव में" का साक्ष्य प्रतीकमयी भाषा का प्रयोग वही कर सकता है जो 'चेतना के गहराव' में उतरकर अनुभव के रत्न कमा चुका
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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