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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 263 और वास्तव में यही हुआ भी, विदेशी पचा नहीं सके। हाँ, इतना अवश्य है कि भारतीय संस्कृति 'कीचड़ से कीचड़ नहीं धोया जा सकता है' के सिद्धान्तों को कार्य रूप देने में सदा से विश्वास रखती चली आ रही है, क्योंकि उसके सामने 'बाली' और 'रावण' जैसे रामायण - पात्र दृष्टान्त के रूप में उपस्थित हैं। दशानन ने प्रतिकार स्वरूप बाली से बदला को ठान लिया था, जिसका परिणाम यह हुआ कि रावण ' त्राहि मां !, त्राहि मां !!, त्राहि मां !!!' यों चिल्लाता हुआ राक्षस की ध्वनि में रो पड़ा और तभी से 'रावण' नाम से अभिहित है। इतना ही नहीं बल्कि प्रतिशोध की अग्नि में जलने वाले बड़े-बड़े बलशाली गज-दल भी उसकी लपटों से अपने को सुरक्षित नहीं कर पाते । बदले की भावना का ही परिणाम है कि राहु के विकराल गाल में चेतन रूप भासित भास्कर भी अपने अस्तित्व को खो देता है । यहीं पर हम अपने को पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति से पृथक् पाते हैं, क्योंकि : " पश्चिमी सभ्यता / आक्रमण की निषेधिका नहीं है अपितु ! / आक्रमण - शीला गरीयसी है ... भारतीय संस्कृति है / सुख-शान्ति की प्रवेशिका है ।" (पृ. १०२ - १०३) इसका समुचित ज्ञान हमें भारतीय संस्कृति के प्राण तत्त्व 'अध्यात्म' और 'दर्शन' से प्राप्त होता है। 'मूकमाटी' के अन्दर भारतीय संस्कृति के अनुरूप ही अध्यात्म और दर्शन का मणि- कांचन संयोग मिलता है । इसको देखते लगता है कि वह जीवन पर आरोपित नहीं है अपितु जीवन से ही निकला है । प्रायः लोग 'अध्यात्म' और 'दर्शन' के सम्बन्ध में इस धारणा से आक्रान्त रहे हैं क्या दर्शन और अध्यात्म एक ही जीवन के दो पहलू हैं ? क्या इनमें कार्यकारण सम्बन्ध है ? इन सभी प्रश्नों का उत्तर श्रीमान् विद्यासागरजी ने यह कहकर दिया है कि दर्शन का आयुध शब्द है, विचार है और अध्यात्म तो निरायुध है, सर्वथा स्तब्ध, निर्विचार । दर्शन ज्ञान भी, ज्ञेय भी है किन्तु अध्यात्म है ध्यान और ध्येय | दर्शन कभी सत्य, कभी असत्य के झूले पर झटके खाता है जबकि अध्यात्म सदा सत्य ही भासित होता है । इसीलिए भारतीय संस्कृति दर्शन को अध्यात्म के भीतर पचाकर उसके सर्वथा कल्याणकारी और मंगलकारी स्वरूप के प्रतीक रूप में 'सर्व' की ही कामना से ओत-प्रोत रही है । 'ही' और 'भी' दो बीजाक्षरों के द्वारा काव्यकार ने जहाँ एक ओर भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति के पार्थक्य को दर्शाया है, वहीं जैन दर्शन के अनेकान्तवाद और स्याद्वाद की सरल व्याख्या जीवन के भीतर से करने में सफलीभूत भी हुआ है। वह व्याख्या देखते ही बनती है : 66 ''ही' और 'भी' इन दो अक्षरों का/ ये दोनों बीजाक्षर हैं, अपने-अपने दर्शन का प्रतिनिधित्व करते हैं । /'ही' एकान्तवाद का समर्थक है ‘भी’ अनेकान्त, स्याद्वाद का प्रतीक । / हम ही सब कुछ हैं / यूँ कहता है 'ही' सदा, तुम तो तुच्छ, कुछ नहीं हो ! / और, / 'भी' का कहना है कि हम भी हैं / तुम भी हो/ सब कुछ ! / ... 'ही' पश्चिमी सभ्यता है 'भी' है भारतीय संस्कृति, भाग्य-विधाता ।” (पृ.१७२-१७३) अत: कवि ईश्वर से प्रार्थना करता है कि इस धरती पर 'ही' का अभाव रहे और 'भी' की सभी से भेंट होती रहे। वैसे तो 'मूकमाटी' में समस्त भारतीय दर्शन समाहित हैं किन्तु वह पाठकों पर 'फिलॉसफी' के रूप में नहीं अपितु सचमुच जीवन-दर्शन के रूप में ही अभिव्यक्त हुआ है । यदि ' विचार और चिन्तन' को दर्शन की संज्ञा दें तो 'मूकमाटी' में भारतीय एवं पाश्चात्य सभी प्रकार के विचार आ गए हैं। समाजवाद, साम्यवाद, लोकतन्त्र, पूँजीवाद, अस्तित्ववाद, भौतिकवाद क्रमश: पृष्ठ सं.-४६१, ३६६, ३८२, ३६६, ३६१, ७२, ८२, ८३, १९२, २१७, ३९६ और ४११ में 1
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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