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________________ 262 :: मूकमाटी-मीमांसा " अपने को छोड़कर / पर-पदार्थ से प्रभावित होना ही मोह का परिणाम है / और / सब को छोड़कर अपने आप में भावित होना ही / मोक्ष का धाम है।” (पृ. १०९-११०) इस मोक्ष के धाम के लिए भारतीय संस्कृति के अतिरिक्त मेरी दृष्टि में अन्य कोई भी स्थान नहीं है । भारतीय संस्कृति में 'मनु' से लेकर आधुनिक साहित्य में लगभग या यों कहूँ स्यात् समस्त साहित्य मनीषियों ने नारी के महिमामण्डित स्वरूप की ही उपासना की है। सन्त काव्य की परम्परा में राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त मुनि विद्यासागर जी महाराज भला इससे हटकर कैसे सोच सकते हैं, क्योंकि वे तो स्वयं संस्कृति हैं । आचार्यश्री की इस भावना का सम्यक् दर्शन 'नारी' के समानार्थी शब्दों के ध्वनि-बोध में होता है : "इनका सार्थक नाम है 'नारी' / यानी - / 'न अरि' नारी" अथवा / ये आरी नहीं हैं / सोनारी ।” (पृ.२०२) इसमें नारी के समर्पण की अनुगूँज है, क्योंकि जब कभी नारी प्रतिदान करती है तब अरि यानी शत्रु-भाव से नहीं, मित्रभाव से । इसी प्रकार 'महिला' यानी मंगलमय माहौल, जो पुरुष के जीवन में लाती है । 'अबला' से अभी तक नारी के 'बलहीन' स्वरूप की ही अभिव्यक्ति होती थी, किन्तु 'मूकमाटी' की 'अबला, बलहीन नहीं, अपितु 'अवगम’ज्ञानज्योति से ज्योतिर्मान करने वाली, पुरुष - चित्त को अनागत की आशाओं से पूरी तरह हटाकर आगत- वर्तमान में लाने वाली और इतना ही नहीं बल्कि न बला'' सो अबला - समस्या- शून्य समाधान । नारी का 'कुमारी' स्वरूप तो और अधिक सार्थक है, क्योंकि 'कु' यानी पृथ्वी, 'मा' यानी लक्ष्मी और 'री' यानी देने वाली अर्थात् यह धरा सम्पदासम्पन्ना तब तक रहेगी जब तक यहाँ कुमारी रहेंगी । इसी प्रकार नारी के 'स्त्री', 'सुता', 'दुहिता' एवं 'मातृ ' समानार्थी शब्द भी अपने में भारतीय संस्कृति के उदात्त गुणों को समाहित किए हुए हैं। इतिहास हमारी संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में गवाही देता है कि नारी दया, माया, ममता और अगाध विश्वास की प्रतिभूति पहले है, बाद में कुछ और । सर्वप्रथम ‘मूकमाटी' में भारतीय संस्कृति के रूप में 'नारी' की ही समीक्षा प्रस्तुत की गई, क्योंकि वह पुरुष के सुन्दर समतल जीवन में पीयूष स्रोत-सी बहकर अमरत्व प्रदान करती है। का ध्यान र पुरुष कर्म पथ में प्रवृत्त होता है और उसके भीतर परिश्रम / संघर्ष के रूप में पुरुषार्थ की भावना जाग्रत होती है अन्यथा पुरुष सुषुप्तावस्था में ही बना रहता । 'आस्था' का जीवन में प्रादुर्भाव तो 'नारी' के प्रेरक वचनों से ही होता है और पुरुष सोचने को विवश हो जाता है कि पर्वत की तलहटी से पर्वत के उत्तुंग शिखरों को केवल देखा ही जा सकता है, उस पर चढ़ने के लिए तो 'चरण' का प्रयोग करना ही पड़ेगा, इसके बिना शिखर का स्पर्शन सम्भव ही नहीं है । इसीलिए हमारी संस्कृति कहती है 'संघर्ष ही जीवन है' और यही 'मूकमाटी' कहती है: “संघर्षमय जीवन का उपसंहार नियमरूप से हर्षमय होता है” (पृ. १४) । पाश्चात्य जगत् यह समझता है कि भारतीय संस्कृति मात्र 'हाथ में हाथ धरकर' बैठने में विश्वास रखती है, किन्तु उसे यह पता नहीं कि संस्कृति उसे ‘मूकमाटी' के द्वारा अवगत करा देना चाहती है : " बाहुबल मिला है तुम्हें / करो पुरुषार्थ सही / पुरुष की पहचान करो सही, परिश्रम के बिना तुम / नवनीत का गोला निगलो भले ही, कभी पचेगा नहीं वह / प्रत्युत, जीवन को खतरा है !" (पृ. २१२)
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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