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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 255 कभी-कभी शूल भी/अधिक कोमल होते हैं/"फूल से भी।” (पृ.९९) मनुष्य अपनी असत् भावनाओं के कारण वैयक्तिक अहित करने वाले से बदला लेने की भावना से ग्रस्त जीव है, इस सूक्ष्मतम मनोभाव (द्वेष) को भी कवि ने छोड़ा नहीं। इसकी निरर्थकता इतिहास के पन्नों से वह सिद्ध करता है और कविवर का सन्देश है कि मनुष्य को बदले की भावना से नहीं, परोपकार की भावना से आबद्ध रहना चाहिए। 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं - इस महाकाव्य का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण, सार्थक (दूसरा) खण्ड है, जिसमें कवि की रचनाधर्मिता मानवीय गुणों की हर महत्ता का परीक्षण करती प्रतीत होती है । यहाँ नवों रसों को परिभाषित किया गया है । वस्तुत: उच्चारण, मात्र 'शब्द' है, शब्द का सम्पूर्ण अर्थ समझना बोध' है और इस बोध को अनुभूति में, आचरण में उतारना 'शोध' है। निश्चय ही यह खण्ड रचनाकार की रचनाधर्मिता का साक्षी बन गया है : "माटी के प्राणों में जा,/पानी ने वहाँ/नव-प्राण पाया है, ज्ञानी के पदों में जा/अज्ञानी ने जहाँ/नव-ज्ञान पाया है।” (पृ. ८९) तीसरा खण्ड 'माटी' की विकास यात्रा का प्रतीक बन पड़ा है, जिसके द्वारा पुण्य कर्म का सम्पादन होता है और पुण्य सम्पादन ही मानव की उपलब्धि है। यह उपलब्धि मोतियों की वर्षा के रूप में है । यद्यपि ये मोतियाँ कुम्भकार की थीं, किन्तु कुम्भकार नि:शेष भाव से इन्हें राजा को सौंप देता है : "कृपापात्र पर कृपा करो/यह निधि स्वीकार कर/इस पर उपकार करो! इसे उपहार मत समझो/यह आपका ही हार है, शृंगार।” (पृ. २२०) रचनाकार की दृष्टि पुण्य उपार्जन के माध्यमों की खोज में दर-दर भटकती हुई, अन्तत: लोक मंगल की भावना को इसका आधार बनाती है। यह लोक मंगल, जो मनुष्य को जड़त्व से मुक्ति दिलाए एवं पतन के गर्त से निकाले, इसी की खोज आचार्य शुक्ल भी कविता में करते हैं और इसी भावना को कविता के परीक्षण का आधार भी बनाते हैं। 'मूकमाटी' के कवि भी इसे और पुष्ट करते प्रतीत होते हैं : "जल को जड़त्व से मुक्त कर/मुक्ता-फल बनाना, पतन के गर्त से निकाल कर/उत्तुंग-उत्थान पर धरना, धृति-धारिणी धरा का ध्येय है ।/यही दया-धर्म है।" (पृ.१९३) 'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' नामक चौथे खण्ड में कुम्भकार ने घट को आकार दे दिया है और अब उसे अवा में तपाने की तैयारी है । समूची प्रक्रिया काव्यबद्ध है । इन प्रक्रियाओं के बीच बबूल की लकड़ी की व्यथा-गाथा वर्णित है । इसमें लकड़ियों के जलने-बुझने की क्रिया के साथ-साथ कुम्भकार द्वारा उन्हें प्रज्वलित करने की प्रक्रिया साकार हो उठी है । और इस क्रिया में कुम्भ की अग्नि से अभिव्यक्ति परम धार्मिक बन पड़ी है : "मेरे दोषों को जलाना ही/मुझे जिलाना है स्व-पर दोषों को जलाना/परम-धर्म माना है सन्तों ने । दोष अजीव हैं,/नैमित्तिक हैं,/बाहर से आगत हैं कथंचित्; गुण जीवगत हैं,/गुण का स्वागत है।
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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