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________________ 254 :: मूकमाटी-मीमांसा "स्वयं पतिता हूँ/और पातिता हूँ औरों से, अधम पापियों से/पद-दलिता हूँ माँ !" (पृ. ४) यह शाश्वत सत्य 'मूकमाटी' की अभिव्यक्ति बनकर उभरा है जो निरन्तर शोषण के शिकंजे में ग्रस्त है, परन्तु शोषित में ही सत्य की, जीवन सत्य की, सम्भावना होती है। तभी तो आचार्यप्रवर ने माटी को माँ धरती के रूप में कहा “सत्ता शाश्वत होती है, बेटा!/प्रति-सत्ता में होती हैं अनगिन सम्भावनायें/उत्थान-पतन की,/खसखस के दाने-सा बहुत छोटा होता है/बड़ का बीज वह !" (पृ. ७) इसे पतित जानने के पीछे, अपने शोषण की अनुभूति के पीछे प्रभु के गुरुतम रूप की पहचान है। यह पहचान जीव को ऊँचाई के चरम पर पहुँचा देती है। यह पहचान मनुष्य में आस्था की सर्जक है । आस्था ही जीवन का रहस्य है। बेटी (माटी) की पीड़ा, माँ (धरती) का 'बेटा' शब्द से सम्बोधित बेटी को उद्बोधन, माँ द्वारा कुम्भकार के आने का संकेत और कुम्भकार द्वारा माटी को खोदने की प्रक्रिया, कुम्भकार एवं माटी की वार्ता, गन्ध की पीड़ा से माटी का द्रवित होना आदि प्रसंगों द्वारा 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ' खण्ड में जड़ से चेतन रूप में माटी की वह गाथा व्यक्त है, जो आज तक अव्यक्त रही है । और यह गाथा, जीवन की वह गाथा है जिसमें स्वयं नष्ट होकर दूसरे को सुख पहुँचाता है। माटी भी यही कर रही है। पर वह अपने अस्तित्व का संकट भूलकर अपने कारण दूसरे को दुःखी नहीं करना चाहती "बोरी में से माटी/क्षण-क्षण/छन-छन कर छिलन के छेदों में जा/मृदुतम मरहम/बनी जा रही है।" (पृ. ३५) 'मूकमाटी' में प्रबन्ध काव्य के अवसरानुकूल कहीं कवि प्राकृतिक दृश्यों की योजना में रमा हुआ दिखाई देता है और कहीं परम तत्त्व की खोज की ओर उन्मुख प्रतीत होता है। एक आकर्षक सर्वोपयोगी पात्र के रूप में परिणत होने के लिए 'माटी' को विभिन्न प्रक्रियाओं, परीक्षणों, संघर्षों आदि से गुज़रना होता है, इसका सूक्ष्मतम विवेचन इस खण्ड में द्रष्टव्य है । छोटे-छोटे जीवों, जड़ तत्त्वों से माटी की वार्ता या उनका मानवीकरण कवि के रचनात्मक कौशल का प्रमाण हैं। महाकवि आचार्य विद्यासागर का लक्ष्य है-“वसुधैव कुटुम्बकम्”, परन्तु भारत आज इसके मूल अर्थ से बहुत हट गया है। वह भौतिकतावादी सुखों की ओर भाग रहा है, यथा : "इसका आधुनिकीकरण हुआ है/वसु यानी धन-द्रव्य धा यानी धारण करना/आज/धन ही कुटुम्ब बन गया है धन ही मुकुट बन गया है जीवन का।" (पृ. ८२) और वे यह भी अनुभव करते हैं : "दूसरों की पीड़ा-शल्य में/हम निमित्त अवश्य हैं/इसी कारण हम शूल हैं तथापि/सदा हमें शूल के रूप में ही देखना/बड़ी भूल है,
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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