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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 241 अर्थ की लिप्सा ने बड़ों-बड़ों को/निर्लज्ज बनाया है।" (पृ. १९२) ० “आततायिनी, आर्तदायिनी/दीर्घ गीध-सी/इस धन-गृद्धि के लिए धिक्कार हो, धिक्कार हो।” (पृ. १९७) "अब धन-संग्रह नहीं,/जन-संग्रह करो!/और/लोभ के वशीभूत हो अंधाधुन्ध संकलित का/समुचित वितरण करो/अन्यथा,/धन हीनों में चोरी के भाव जागते हैं, जागे हैं।” (पृ. ४६७-४६८) 'साकेत संत' महाकाव्य में पं. बलदेव प्रसाद मिश्र ने मानवता की रक्षा के लिए ऐसा ही भाव व्यक्त किया है: "मनुजता के जीवन का मर्म, आह की गहराई ले जान । मनुजता की रक्षा के हेतु, निछावर कर दे अपने प्राण ॥" भौतिक जड़वाद ने मानव को स्वार्थी, लोभी, निर्दय बना दिया है। आचार्यश्री ने 'मूकमाटी' में इस भौतिकवाद की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित किया है, जिसके विषम परिणाम परिलक्षित होते हैं : . “कलि-काल की वैषयिक छाँव में/प्रायः यही सीखा है इस विश्व ने वैश्यवृत्ति के परिवेश में-/वेश्यावृत्ति की वैयावृत्य..!" (पृ. २१७) । “अन्धकार-मय भविष्य की आभा,/जो/मौलिक वस्तुओं के उपभोग से विमुख हो रहा है संसार !/और/लौकिक वस्तुओं के उपभोग में प्रमुख हो रहा है, धिक्कार !" (पृ. ४११) 'वैदेही वनवास' में अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' ने भी भौतिकता की निन्दा की है, जो स्वार्थ भावना के वैषम्य को उत्पन्न करती है : "भौतिकता में यदि है जड़वादिता/आध्यात्मिकता मध्य चिन्मयी शक्ति है। आध्यात्मिकता का प्रचार कर्तव्य है/जिससे यथासमय भव का हित हो सके ॥" (वैदेही वनवास : हरिऔध) ___ 'मूकमाटी' में सन्त-कवि ने 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना को साकार कर दिया है । आत्मानुभूति के लिए सच्ची आस्था की आवश्यकता है। आस्था से साधना में सरलता और जीवन में सार्थकता आती है, यथा : "...जीवन का/आस्था से वास्ता होने पर/रास्ता स्वयं शास्ता होकर सम्बोधित करता साधक को/साथी बन साथ देता है। आस्था के तारों पर ही/साधना की अँगुलियाँ/चलती हैं साधक की, सार्थक जीवन में तब/स्वरातीत सरगम झरती है !" (पृ. ९) ऐसा ही अटल आस्थावादी भाव 'साकेत' में गुप्तजी ने इन पंक्तियों में व्यक्त किया है, यथा : "राम, तुम मानव हो ? ईश्वर नहीं हो क्या ? विश्व में रमे हुए नहीं सभी कहीं हो क्या ? तब मैं निरीश्वर हूँ, ईश्वर क्षमा करें;
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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