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________________ 240 :: मूकमाटी-मीमांसा होगा ? हम किस प्रकार मानवता की रक्षा कर सकेंगे ? अपनी संस्कृति के प्रति आकर्षण नहीं होगा तो हम मातृ-भूमि (देश की माटी) की गरिमा का जयघोष कैसे कर सकेंगे ? अतएव सांस्कृतिक उन्नयन आवश्यक है जिससे स्नेहपूर्ण जीवन का विकास होता है । 'मूकमाटी' कार ने भारतीय संस्कृति के मूल मन्त्र को इन पंक्तियों में बाँधा है : "कृति रहे, संस्कृति रहे / आगामी असीम काल तक / जागृत "जीवित" अजित ! सहज प्रकृति का वह / शृंगार - श्रीकार / मनहर आकार ले जिसमें आकृत होता है।/ कर्त्ता न रहे, वह / विश्व के सम्मुख कभी भी विषम - विकृति का वह / क्षार-दार संसार है / अहंकार का हुँकार ले जिसमें जागृत होता है ।/ और / हित स्व-पर का यह निश्चित निराकृत होता है !" (पृ. २४५ - २४६) X X X "सर्वे भवन्ति सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग् भवेत् ॥ "" भारतीय संस्कृति का यह सन्देश 'मूकमाटी' कार ने इन पंक्तियों में अभिव्यक्त किया है : D "यहाँ... सब का सदा / जीवन बने मंगलमय / छा जावे सुख-छाँव, सबके सब टलें - / अमंगल - भाव, / सब की जीवन लता हरित - भरित, विहँसित हो / गुण के फूल विलसित हों नाशा की आशा मिटे / आमूल महक उठें / ... बस ।” (पृ. ४७८) इस भौतिकतावादी जड़ युग में ऐसे कवि और कृति का अवतरित होना विशेष उपलब्धि है । 'साकेत' महाकाव्य में स्व. गुप्तजी ने ऐसा ही भाव इन पंक्तियों में व्यक्त किया है : 'भव में नव वैभव व्याप्त कराने आया, / नर को ईश्वरता प्राप्त कराने आया ! सन्देश यहाँ मैं नहीं स्वर्ग का लाया, / इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया || " (साकेत : गुप्त ) 'कामायनी' महाकाव्य में प्रसादजी ने जहाँ समरसताजन्य आनन्दवाद की प्रतिष्ठा कर मानवता के स्वर फूँके हैं, वहीं सन्त कवि विद्यासागर ने एकान्तवाद, आतंकवाद का अवसान कर एवं अनेकान्तवाद और अनन्तवाद की स्थापना कर मानवता की विजय का सन्देश दिया है, यथा : "शक्ति के विद्युत्कण, कण जो व्यस्त / विकल बिखरे हैं, हो निरुपाय । समन्वय उसका करे समस्त / विजयिनी मानवता हो जाय !" ( कामायनी : प्रसाद ) पूँजीवादी, साम्राज्यवादी प्रवृत्तियों से खोखले इस मानव समाज को संरक्षित करने की मूलभूत चेतना से अनुप्राणित पंक्तियाँ 'मूकमाटी' में इस प्रकार हैं : "अर्थ की आँखें / परमार्थ को देख नहीं सकतीं
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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