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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 227 इस खण्ड में साहित्य, संगीत, रस आदि की मनोरम विवेचना की गई है। साहित्य की काव्यमय परिभाषा कितनी सटीक और व्यंजक है : “हित से जो युक्त - समन्वित होता है/वह सहित माना है और/सहित का भाव ही/साहित्य बाना है, अर्थ यह हुआ कि/जिस के अवलोकन से/सुख का समुद्भव - सम्पादन हो सही साहित्य वही है/अन्यथा,/सुरभि से विरहित पुष्प-सम सुख का राहित्य है वह/सार-शून्य शब्द-झुण्ड ...!" (पृ. १११) साहित्य चिन्मय आनन्द का स्रष्टा होता है । इसीलिए साहित्य के रसास्वादन से काँटा कान्ता-समागम से भी कई गुना आनन्द का अनुभव करता है । सन्त कवि ने स्थूल दैहिक सुख के माध्यम से ब्रह्मानन्द-सहोदर काव्यानन्द के सूक्ष्म अनुभव को रूपायित करने की चेष्टा की है। वीर, रौद्र, हास्य, शृंगार, वात्सल्य, करुण, बीभत्स, भय और शान्त रसों को नवीन रूप में व्याख्यायित करते हुए इनकी अनुपयोगिता और कल्मषता को उजागर किया गया है । वीर रस व्यक्ति को उद्दण्ड बनाता है तो रौद्र रस सत्त्व गुणों को समाप्त करके राजसी-तामसी वृत्ति को विकसित करता है । हास्य रस भी त्याज्य है, क्योंकि : "खेद-भाव के विनाश हेतु/हास्य का राग आवश्यक भले ही हो किन्तु वेद-भाव के विकास हेतु/हास्य का त्याग अनिवार्य है हास्य भी कषाय है ना!" (पृ. १३३) भय व्यक्ति को भयातंकित करता है तो शृंगार वासना की उपासना है । करुणा व्यक्ति को बहिर्मुखी बनाती है । वात्सल्य ममतामय होता हुआ भी करुणा के समान 'द्वैतभोजी' होता है । आन्तरिक उपादान से परिपुष्ट होने के कारण शान्त रस व्यक्ति के आत्मोन्नयन में सहायक होता है । यह अलौकिक रस है और बाकी सभी रस लौकिक । शान्त रस की अलौकिक उत्कृष्टता को अभिज्ञापित करता हुआ कवि कहता है : "शान्त-रस का क्या कहें,/संयम-रत धीमान को ही/'ओम्' बना देता है। जहाँ तक शान्त रस की बात है/वह आत्मसात् करने की ही है कम शब्दों में/निषेध-मुख से कहूँ/सब रसों का अन्त होना ही-/शान्त-रस है। यूँ गुनगुनाता रहता/सन्तों का भी अन्तःप्रान्त वह ।/"धन्य !" (पृ.१५९-१६०) अभी तक शृंगार को रस-राज माना जाता रहा है, लेकिन आध्यात्मिक उपादेयता के कारण सन्त कवि ने शान्त का ही रस-राजत्व स्वीकार किया है। कवि ने संगीत के आभ्यान्तरिक वैशिष्ट्य को भी प्रतिपादित किया है । वस्तुत: संगीत वह है जिसके स्वर-राग अन्तरात्मा को संगातीत आनन्द से पूर्णत: परिप्लावित कर दे । संगीत और प्रीति की यह अपार्थिव विवेचना कितनी सारगर्भित है : "संगीत उसे मानता हूँ/जो संगातीत होता है और/प्रीति उसे मानता हूँ/जो अंगातीत होती है।" (पृ. १४४-१४५)
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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