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________________ 226 :: मूकमाटी-मीमांसा वर्णलाभ करता है। दूसरे खण्ड 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं' में कवि ने माटी से मंगल घट बनाने की प्रक्रिया के वर्णन द्वारा अनगढ़ जीवन की सुसंस्कारिकता पर प्रकाश डाला है । कंकर कणों को अलग करके माटी को कुंकुम-सम मसृण बनाकर शिल्पी उसमें मात्रानुकूल निर्मल जल मिलाता है । जिस प्रकार जल से संयुक्त होकर मिट्टी में नवीन प्राणमयता का संचार हो जाता है, उसी तरह करुणा और ज्ञान से संयुक्त होकर मानव की काया चेतना की चिरन्तन ज्योति से आलोकित हो उठती है। ज्योति के प्रवेश होते ही मानव-मन दासत्व से सदा-सर्वदा के लिए मुक्त हो जाता है । मन की अधीनता से मुक्त होने का सन्देश देता हुआ कवि कहता है : "मन के गुलाम मानव की/जो कामवृत्ति है/तामसता काय-रता है वही सही मायने में/भीतरी कायरता है !/सुनो, सही सुनो/मनोयोग से ! अकाय में रत हो जा!/काय और कायरता/ये दोनों अन्त-काल की गोद में विलीन हों/आगामी अनन्त काल के लिए!" (पृ. ९४) माटी खोदते समय कुम्भकार की कुदाली से काँटे का सिर आधा फट जाता है। काँटा बदला लेने की ठान लेता है। बदले की भावना वह आग है जो व्यक्ति के तन-मन को अहर्निश अभितप्त करती रहती है । क्षमा ही एक ऐसा अमोघ अस्त्र है जो बदले की दुधारी तलवार को काट सकती है। लेकिन क्षमा-याचना का अधिकारी वही है जो निर्वैर हो, दूसरों के अपराधों को क्षमा करने के सहज स्वभाव का स्वामी हो । कुम्भकार काँटे से क्षमा माँगते हुए कहता है : "सम्मामि, खमंतु मे-/क्षमा करता हूँ सबको,/क्षमा चाहता हूँ सबसे, सबसे सदा-सहज बस/मैत्री रहे मेरी!/वैर किससे/क्यों और कब करूँ ? यहाँ कोई भी तो नहीं है/संसार-भर में मेरा वैरी!" (पृ. १०५) क्षमा-याचना के प्रभावस्वरूप काँटे का क्रोध काफूर हो जाता है और उसके प्रतिशोध भाव का पूर्णत: शमन हो जाता है। उसमें मैत्री का भाव जागरित होता है, और यह बोध, फिर शोध में परिणत होकर उसके आचरण का सहज अंग बन जाता है । वस्तुत: बोध और शोध का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है : "बोध के सिंचन बिना/शब्दों के पौधे ये कभी लहलहाते नहीं, यह भी सत्य है कि/शब्दों के पौधों पर/सुगन्ध मकरन्द-भरे बोध के फूल कभी महकते नहीं,/...बोध का फूल जब ढलता-बदलता, जिसमें/वह पक्व फल ही तो/शोध कहलाता है। बोध में आकुलता पलती है/शोध में निराकुलता फलती है, फूल से नहीं, फल से/तृप्ति का अनुभव होता है।" (पृ. १०६-१०७) · कण्टक और शिल्पी के वार्तालाप में तत्त्व दर्शन के अनेक आयाम उद्घाटित हुए हैं। स्थिर मन को सुख का और अस्थिर मन को दुःख का सोपान बताते हुए शिल्पी मोह और मोक्ष के विषय में कण्टक की जिज्ञासा शान्त करता हुआ कहता है : "अपने को छोड़कर/पर-पदार्थ से प्रभावित होना ही/मोह का परिणाम है और/सब को छोड़कर/अपने आप में भावित होना ही/मोक्ष का धाम है।" (पृ. १०९-११०)
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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