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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 209 निहित है । जिस प्रकार एक तुच्छ बीज मिट्टी, जल तथा वायु का सहयोग पाकर विशाल वटवृक्ष का रूप धारण कर लेता है उसी प्रकार पददलित मूकमाटी ने 'मूकमाटी' महाकाव्य का रूप धारण कर लिया है । माटी को एक बृहदाकार आयोजन का रूप देना कविश्री की कवित्वशक्ति का सफल और सार्थक निदर्शन है । वास्तव में 'मूकमाटी' महाकाव्य आचार्य श्री विद्यासागरजी की मूक साधना और मूक आराधना की हिन्दी साहित्य को चिरस्मरणीय देन है । निश्चय ही 'मूकमाटी' तपः पूत आत्मा का साहित्य को प्रसाद है । 'मूकमाटी' काव्य को कवि ने चार खण्डों में निबद्ध किया है । खण्डों के नाम भी किसी प्राचीन परिपाटी-सर्ग योजना - पर आधृत न हो कर कवि की अपनी सूझबूझ एवं दूरदृष्टि के परिचायक हैं। केवल विषयवस्तु को आधार बनाकर उनका नामकरण किया गया है। पहला खण्ड है- 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ', जो ८८ पृष्ठों में है । दूसरा खण्ड है- 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं, जो १०० पृष्ठों का है। तीसरा खण्ड है- 'पुण्य का पालन : पापप्रक्षालन', जो ८० पृष्ठों का है और अन्तिम चौथा खण्ड है- 'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख', जो २२० पृष्ठों का है और परिमाण की दृष्टि से सबसे बड़ा है । आचार्य श्री विद्यासागरजी जहाँ संस्कृत, कन्नड़, मराठी और हिन्दी के ज्ञाता हैं वहाँ वे अँग्रेजी भाषा से भी सुपरिचित हैं । कन्नड़ उनकी मातृभाषा है। प्रखर प्रतिभा के धनी विद्यासागरजी का व्यक्तित्व बहु आयामी है। एक ओर वे वैयक्तिक साधना-आराधना में निरत रहने वाले नग्न मुनि हैं तो दूसरी ओर सन्तों की-सी वाणी में प्रवचन देने में भी हैं। एक ओर वे अलौकिक काव्यकुशलता से मण्डित हैं तो दूसरी ओर वे बहुज्ञता की दृष्टि से पण्डित हैं। एक ओर मुनिवर, आर्यिका, ऐलक एवं क्षुल्लकजी आदि को दीक्षा देने वाले मुनिश्रेष्ठ दीक्षागुरु हैं तो दूसरी ओर मुनिसंघ के नियमों का कठोरता से पालन कराने वाले आचार्य हैं। ऐसे सन्त कवि विरले ही होते हैं जिन में एक साथ और एक ही स्थान पर इस प्रकार की विविध विधाएँ विद्यमान रहती हैं। इस अर्थ में उन पर 'यथा नाम तथा गुण' की उक्ति चरितार्थ होती है । कल्पवृक्ष संस्कृत काव्यशास्त्र के प्राचीन आचार्यों ने महान् कवि में तीन बातों का होना अनिवार्य माना है- प्रतिभा, लोक-शास्त्र ज्ञान या अनुभव, और अभ्यास । इन में प्रतिभा तो प्रथम आवश्यकता है । यह काव्य प्रतिभा ही काव्य के की जननी है । उसी से इस कल्पवृक्ष पर नवनवोन्मेषशालिनी वल्लरियाँ लगती हैं और समस्त कल्पवृक्ष युगोंकवि कीर्ति को चिरस्थायी बनाए रखता है, जिससे कविकृति भी कमनीय, रमणीय और कालातिक्रमणीय बन जाती है। लौकिक ज्ञान की भी महती आवश्यकता है जिसके बिना सम्पूर्ण कवि-कर्म सदोष और कलुषित हो जाता है । लौकिक ज्ञानविहीन कवि अपने वास्तविक कर्म से भ्रष्ट हो जाता है और उसका काव्य अविश्वसनीयता की कोटि में परिगणित किया जाता है । कवि क्योंकि अपनी काव्य प्रतिभा द्वारा एक नए संसार का निर्माण करता है इसलिए उसमें उसका बाह्यज्ञान या लोकज्ञान नैपुण्य बहुत सहायता प्रदान करता है । यही कारण है कि उसका काव्य संसारीजनों का कमनीय कण्ठहार बनता है । अभ्यास की भी आवश्यकता इसलिए है कि कवि इसके द्वारा अपने काव्य में काव्यकला के सभी गुण समाहित करता है। बार-बार अभ्यास करने से उसका काव्य सर्वगुण सम्पन्न बनता है और शब्दों को मौक्तिक लाभ मिलता है । अभ्यास के विषय में कहा भी गया है कि इससे मन्दबुद्धि या जड़मति भी उसी प्रकार ज्ञानवान् बनता है जिस प्रकार बार- बार रस्सी के आने-जाने या स्पर्श से कठोर प्रस्तर शिला पर भी निशान बन जाते हैं : " करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान । रसरी आवत जात से, सिल पर पड़त निशान ॥ " वस्तुत: आचार्य श्री ऐसे कवि हैं जो कवियों की हर कसौटी या परिभाषा पर खरे उतरते हैं । ऐसे ही मनीषी
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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