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'मूकमाटी' में युग-बोध का चित्रण
डॉ. भानु कुमार जैन दिगम्बर जैन समाज में जिन आचार्यों की ख्याति आज सर्वत्र व्याप्त है उन में एक आचार्य विद्यासागर भी हैं। अध्यात्म, दर्शन, श्रमण संस्कृति, साधना, तपश्चर्या, धार्मिक देशना आदि सभी दृष्टियों से वे अपने नाम को सार्थक करते हैं । वास्तव में वे ज्ञान के एवं विद्या के सागर हैं। जितना गहरा सागर होता है निस्सन्देह उतने ही गहरे विद्यासागर हैं। जिस प्रकार सागर अपने भीतर अनन्त मुक्ताराशि को छिपाए रहता है उसी प्रकार विद्यासागर भी अनन्त ज्ञानराशि को अपने भीतर छिपाए हुए हैं। उनकी अमृतोपम और विमल वाणी का श्रवण करके अरिहन्त भक्तों की लालसा शान्त होती है। यही कारण है कि उनके प्रवचनों को सुनने के लिए धर्मानुरागी नर-नारियों की अपार भीड़ उमड़ती रहती है। उनका तपस्वी स्वरूप अनुपम है, उनकी धर्म साधना अनुकरणीय है।
___धर्मसाधना के साथ-साथ विद्यासागर जी काव्यसाधना में भी तल्लीन रहते हैं। उनके सहृदय हृदय में एक ऐसा कवि बैठा हुआ है जो उनसे सतत नई-नई काव्यकृतियों का प्रणयन कराता रहता है । 'मूकमाटी' से पूर्व भी उन्होंने कई काव्यकृतियों का सृजन किया है । वे कृतियाँ हैं- (१) 'नर्मदा का नरम कंकर', (२) 'डूबो मत, लगाओ डुबकी', (३) 'तोता क्यों रोता?' इनके अतिरिक्त उन्होंने पूर्व जैनाचार्य कुन्दकुन्द कृत 'समयसार', 'नियमसार' और 'प्रवचनसार' तथा अन्य आचार्यों द्वारा सृजित ग्रन्थों के लगभग दो दर्जन से भी अधिक पद्यानुवाद किए हैं, जो उनके कविहृदय का पूर्ण परिचय देते हैं। निरन्तर आराधना में लीन और मुनिमुद्रा में विलीन आचार्यश्री ने कब और कैसे समय निकाल कर लगभग पाँच सौ पृष्ठीय मुक्त छन्द के बृहदाकार महाकाव्य 'मूकमाटी' का सृजन किया, यह सब उनकी अद्भुत काव्य प्रतिभा का चमत्कार ही समझना चाहिए।
___ सन्त कवि विद्यासागरजी का यह 'मूकमाटी' काव्य आधुनिक भारतीय साहित्य और विशेषकर हिन्दी-भाषासाहित्य संसार के लिए तो एक युगान्तरकारी उपलब्धि है, जिसकी नवीनता एवं मौलिकता तो उसके नाम से ही विदित हो जाती है। यह प्रयोग अपने आप में एक नूतन प्रयोग है परन्तु हिन्दी की प्रयोगवादी कविता की तरह का प्रयोग भी नहीं है जिसमें भाव, भाषा, अलंकार, प्रतीक व बिम्ब सभी में नयापन लाने की होड़ लग गई थी और होड़ में सब की हत्या कर दी गई थी। अभी तक साहित्य में माटी, कुम्भ और कुम्भकार की व्यथा-कथा को लेकर सम्भवतः इतना बड़ा काव्य, महाकाव्य के कलेवर का काव्य, लिखा ही नहीं गया । कंकर कणों से अलग हुई मिट्टी, जल-चक्र-दण्ड एवं कुम्भकार के सहयोग से निर्मित कुम्भ, कुम्भ की अग्नि-परीक्षा (अवा में पकना), मिट्टी का पक्व घट बनने के बाद देवता के चरणों में चढ़ने की भावना आने के पूर्व ही स्वर्ण कलश में ईर्ष्याभाव जागरण, और फिर ईर्ष्याभाव के वशीभूत होकर स्वर्ण कलश द्वारा विघ्नों, बाधाओं और उपसर्गों के दलों का आमन्त्रण, कुम्भ को अपने करकमलों में धारण करने वाले सेठ एवं उसके परिवार पर विपदाओं के पहाड़ टूटना तथा अदम्य साहस के साथ उन सब को सहना, गज दल और नाग-नागिनों के द्वारा सेठ एवं उसके परिवार की दल से रक्षा, कुम्भ द्वारा सेठ को समय-समय पर सान्त्वनामय उपदेश, आतंकित हुए बिना स्वर्ण कलश द्वारा आहूत बाधा-दल पर अपनी श्रेष्ठता बनाए रखना और फिर अन्त में बाधा-दल द्वारा शान्त होकर श्रमण सन्त का प्रवचन सुनना-ये कुछ कथासूत्र हैं, जिनका संयोजन करके कवि विद्यासागर ने पूरा काव्य रचा है । माटी की विकास यात्रा या माटी की विकास कथा को वाणी देने का जो कार्य कवि ने किया है वह सराहनीय तो है ही, वन्दनीय-अभिनन्दनीय भी है।
माटी, कुम्भ, कुम्भकार- ये शब्द साहित्य के लिए नए भी नहीं हैं। तीनों का प्रयोग साहित्य में प्राचीन काल