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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 205 रखा है। हम जीवन में श्रेय और प्रेय का समन्वय किस प्रकार कर सकते हैं, कवि ने इसका मार्ग बताने का प्रयत्न किया है। इस काव्य रचना में उपदेशात्मकता की भरमार होते हुए भी, शुष्क तात्त्विक विषयों पर विचार करते हुए भी कहीं भी नीरसता नहीं आने पाई है और न ही पाठक उसे शुष्क उपदेश मानकर छुटकारा पाने का प्रयत्न कर सकता है । भावपूर्ण विचारों का जाल ऐसा बुनकर फेंका गया है कि पाठक अपने लिए कुछ न कुछ खोजना चाहता है, क्योंकि वर्तमान जीवन विषमताओं, कुण्ठा, हीनभावना और समस्याओं से भरा हुआ है। इसलिए पाठक में उससे निरन्तर जुड़े रहने की भावना बनी रहती है । कवि इस बात का स्वयं संकेत करता है : "इधर, यह लेखनी भी कह उठी / प्रासंगिक साहित्य - विषय पर, कि लेखनी के धनी लेखक से / और / प्रवचन- कला - कुशल से भी कई गुना अधिक/साहित्यिक रस को / आत्मसात् करता है श्रद्धा से अभिभूत श्रोता जो !” (पृ. ११२-११३) कवि तो सात्त्विक भावों की प्रेरणा देकर पाठक के अन्तर्मन को छूता रहता है एवं मानव मात्र के प्रति समान प्रीति भाव रखते हुए उसके कल्याण की कामना करता है। सन्त कवि ने आत्मा की मधुर तरंगों पर तैरते हुए लोक-मंगल भावना पूरित होकर यह काव्य रचना की है । जीवन दर्शन का दिव्य पथ प्रदर्शन कवि के शब्द - शब्द से प्रस्फुटित हुआ है, मानों दिव्यज्ञान का सूर्य कमल पंक्ति को प्रस्फुटित करता हुए आगे बढ़ रहा हो। ऐसे काव्य को हम परम्परागत काव्यशास्त्रीय नियमों की कसौटी पर नहीं परख सकते। फिर भी यदि सूक्ष्म और गहन दृष्टि से देखा जाए तो इस रचना में महाकाव्य की गरिमा परिलक्षित होती है । आरम्भ में मंगलाचरण, नायक, नायिका, भाव, रस, अलंकार, छन्द, भावी कथा का संकेत, प्रकृति चित्रण, जीवन के विविध पक्षों का परिचय, अनेक प्रासंगिक घटनाएँ आदि सभी मिलती हैं । किन्तु इन सब बातों को छोड़ कर आधुनिक काल के महाकाव्य की परिभाषा कि यह जीवन की व्याख्या है, इस कथन को यह काव्य सार्थक सिद्ध करता है। उदात्त विषय, चरित्र, उद्देश्य, उपदेशात्मकता, भाव गरिमा का अनन्त महासागर कवि की आत्मा की भव्य व्यंजना का अपरिमित भण्डार और विराट् धारणा को प्रस्तुत करता है । अत: ऐसे काव्य को निश्चित और सीमित नियमों के आयामों में परिबद्ध करना न तो सम्यक् होगा, न ही उचित । एक महान् काव्य के अनुरूप गुणों और विशेषताओं का अभाव पाठकों को इसमें नहीं मिलेगा । आधुनिक काल में जिस प्रकार महाकाव्य के लक्षण में और आधार भूमि में परिवर्तन आया है, वही लक्षण 'मूकमाटी' में अवश्य मिलेंगे । वाग्वैदग्ध्य, अनुप्रास अलंकारों का गुम्फन, शब्द प्रयोग का सौन्दर्य, वर्ण दीप्ति माधुर्य, मुक्त छन्द, लयात्मकता गुण इसमें उपलब्ध होते हैं । कवि ने काव्य रचना के उद्देश्य और साहित्य की परिभाषा बताई है : के “हित से जो युक्त - समन्वित होता है / वह सहित माना है / और सहित का भाव ही / साहित्य बाना है, / अर्थ यह हुआ कि जिस के अवलोकन से / सुख का समुद्भव - सम्पादन हो सही साहित्य वही है / अन्यथा, / सुरभि से विरहित पुष्प- सम सुख का राहित्य है वह / सार-शून्य शब्द - झुण्ड !” (पृ. १११ ) कवि ने साहित्य के अर्थ, उद्देश्य, विषय के साथ अभिधा, लक्षणा एवं व्यंजना का भी प्रयोग किया है। कहींकहीं प्रहेलिका और गणित ज्ञान का परिचय उसकी बहुज्ञता का परिचय देते हैं । कवि साहित्य की जीवन्तता में विश्वास
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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