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मूकमाटी-मीमांसा :: 199 आशय स्पष्ट है शब्द का अर्थ अनुभव में खपकर अर्थवान् बनता है । शब्दार्थ बोध, आचरण और अनुभूति में उतरकर ही मूल्यवान् होता है ।
तीसरा खण्ड 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' माटी की विकास कथा के माध्यम से पुण्य कर्म के सम्पादन द्वारा उत्पन्न श्रेयस् उपलब्धि का चित्रण है । यह श्रेयस् तत्त्व है भेद से अभेद की यात्रा, द्वय से अद्वय की मधुमती भूमि में प्रवेश का :
चौथा खण्ड 'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' घट के मंगल मूर्ति प्राप्ति की कथा है । घट तपता है, पूर्ण तपकर निकलता है और कुम्भकार द्वारा श्रद्धालु नगर सेठ के सेवकों के हाथ आहार दान के लिए आए गुरु के पादप्रक्षालन के लिए जल भरने को देता है । इस खण्ड के अन्त में एक दृष्टिकोण उभरता है - वह है साधना से प्राप्त आत्मोपलब्धि । चारों खण्डों में अनेक स्फुट संश्लिष्ट बिम्ब हैं, जो मूल संश्लिष्ट महाबिम्ब या समग्र बिम्ब को भास्वर बनाते हैं। यह अवश्य है कि प्रसंगों का पूर्वापर क्रम बिखरा है, पर काव्य को नई मन:स्थिति से जोड़ने के लिए यह प्रयास प्रशंसनीय है ।
भाषिक संरचना का चमत्कार भी प्रभविष्णु है । शब्दों को प्रचलित अर्थ में प्रयुक्त कर उसकी संरचना को व्याकरण के मानदण्ड से प्रस्तुत कर उसे नई अर्थवत्ता दी गई है । शब्दों की व्युत्पत्तिमूलक प्रस्तुति अन्तरंग अर्थ के साथ ही अर्थों के अछूते आयाम को व्यक्त करती है । शब्दों की ध्वनियाँ अनेक साम्यों की प्रतिध्वनि में अर्थान्तरित होकर एक भास्वर, ताज़ा नादात्मक बिम्ब उपस्थित करती हैं जो शब्दलय एवं अर्थलय की मार्मिक अन्विति की व्यंजक हैं
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"निरन्तर साधना की यात्रा / भेद से अभेद की ओर / वेद से अवेद की ओर बढ़ती है, बढ़नी ही चाहिए।" (पृ. २६७)
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'हा' का अर्थ है हारक / मैं सबके और कुछ वांछा नहीं / गद- हा
"मेरा नाम सार्थक हो प्रभो ! / यानी / 'गर्द' का अर्थ है रोग रोगों का हन्ता बनूँ / बस, गदहा ..!" (पृ. ४० )
"युग के आदि में / इसका नामकरण हुआ है / कुम्भकार !
'कुं' यानी धरती / और / 'भ' यानी भाग्य - / यहाँ पर जो
भाग्यवान् भाग्य-विधाता हो / कुम्भकार कहलाता है।" (पृ. २८)
इसमें दार्शनिकता एवं उपदेशात्मकता का क्षण-क्षण इतना आख्यान है कि काव्य 'डायडेक्टिक' लगने लगता है। साथ ही आख्यान शैली प्रवचनात्मक पद्धति अपना लेती है, यथा :
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"सत्ता शाश्वत होती है, बेटा !" (पृ. ७)
" सत्ता शाश्वत होती है/ सत्ता भास्वत होती है बेटा !" (पृ. ७) "स्वरातीत सरगम झरती है !/ समझी बात, बेटा ?" (पृ. ९)
"असत्य की सही पहचान ही / सत्य का अवधान है, बेटा !" (पृ. ९)
आई. ए. रिचर्ड्स ने काव्यास्वाद के विविध अवस्थानों में एक 'दृष्टिकोण का निर्माण' भी माना है। आशय है कि काव्य चिन्तन से पाठक को कौन-सी दृष्टि मिलती है ? प्रस्तुत काव्य में पाठक को जो दृष्टि उपलब्ध है, वह है सबका महामौन में विलय । मौन और मुखर दोनों महामौन में समाहित हो जाते हैं । कहने का अर्थ है आत्मिक आरोहण