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194 :: मूकमाटी-मीमांसा
महिलाओं को जीवित निगल जाता है। आचार्यश्री इस पर खेद प्रकट करते हुए कहते हैं :
" परन्तु खेद है कि / लोभी पापी मानव
पाणिग्रहण को भी / प्राण- ग्रहण का रूप देते हैं ।" (पृ. ३८६)
आज के तथाकथित बड़े लोगों में कितनी हीन भावना है अपने आश्रितों के प्रति, उसका चित्रण उनके दुर्व्यवहार से समझ में आ जाता है :
" प्राय: अनुचित रूप से / सेवकों से सेवा लेते / और वेतन का वितरण भी अनुचित ही । / ये अपने को बताते
मनु की सन्तान ! / महामना मानव ! / देने का नाम सुनते ही
इनके उदार हाथों में / पक्षाघात के लक्षण दिखने लगते हैं, / फिर भी
एकाध बूँद के रूप में / जो कुछ दिया जाता / या देना पड़ता वह दुर्भावना के साथ ही ।” (पृ. ३८६-३८७)
आधुनिक भारतीय प्रजातन्त्र की दोषपूर्ण प्रणाली के विषय में उन्होंने लिखा है :
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"प्राय: बहुमत का परिणाम / यही तो होता है, पात्र भी अपात्र की कोटि में आता है/फिर, अपात्र की पूजा में पाप नहीं लगता ।" (पृ. ३८२)
निःसन्देह चुनाव में कोई भी अपात्र व्यक्ति अन्याय प्रणाली से बहुमत प्राप्त करके नेता बन जाता है । इसी प्रजातन्त्रात्मक शासन के खोखलेपन पर प्रकाश डालते हुए आपने कहा है :
'आज श्वास - श्वास पर / विश्वास का श्वास घुटता - सा देखा जा रहा है. प्रत्यक्ष ! / ... यहाँ तो 'मुँह में राम / बगल में छुरी ।" (पृ. ७२)
आचार्यप्रवर ने आधुनिक युग का बोध विशेषरूप से कलिकाल के माध्यम से कराया है। भारतीय सभ्यता तथा उस पर पड़ती हुई पश्चिमी सभ्यता के आलोक में दोनों के अन्तर को स्पष्ट किया है। सत्-युग व कलि युग के पारस्परिक दृष्टिकोण पर प्रकाश डाला है। इस युग में बदलता हुआ लोह-इस्पात का प्रयोग, स्वर्ण - कनक के स्थान पर लोहे के बर्तन आदि का चित्रण आधुनिकता पर क्षोभ है । उन्होंने आज की समाजवाद की सारहीनता को अभिव्यक्त किया है । आधुनिक युग में पर्याप्त विषमता से उनके हृदय में ठेस पहुँचती है। उनका हृदय कराह उठता है । वे कहते हैं :
“हाय रे ! / समग्र संसार - सृष्टि में / अब शिष्टता कहाँ है वह ? अवशिष्टता दुष्टता की रही मात्र !" (पृ. २१२)
निःसन्देह संसार दुःखों का सागर है परन्तु मानव अपनी श्रमशीलता से दुःखों से मुक्ति प्राप्त कर सकता है
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“अन्याय मार्ग का अनुसरण करने वाले / रावण जैसे शत्रुओं पर -शीलों का हाथ उठाना ही
रणांगण में कूदकर / राम जैसे / श्रम-२