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________________ 188 :: मूकमाटी-मीमांसा हाथ या पैर की हड्डी टूटी हो तो वह भी माटी के प्रयोग से जुड़ सकती है। यहाँ तक कि आँखों के दर्द में भी माटी का प्रयोग अचूक दवा का कार्य करता है। तक्र (छाछ) का दिन के पूर्व भाग में सेवन अत्यन्त गुणकारी है । दूध में मिश्री मिला कर पीना गुणकारी है परन्तु दूध को छौंककर पीने से बुद्धि में विकृति पैदा होती है । दाह रोग में ललाट व नाभि पर चन्दन का लेप वरदान है तथा घी में कपूर मिला कर मस्तक व नाभि पर मलना भी गुणकारी है, परन्तु माटी का लेप हृदयस्थल पर दोषप्रद है। बर्फ लगता तो ठण्डा है परन्तु उसकी तासीर गर्म होती है । मूलत: पथ्य का पालन जीवन में आवश्यक है : "पथ्य का सही पालन होतो/औषध की आवश्यकता ही नहीं।" (पृ. ३९७) ४. गणितशास्त्र का ज्ञान आचार्यप्रवर को गणितशास्त्र का भी विशिष्ट ज्ञान है । इसका संकेत विशेष रूप से उस समय मिलता है जब कुम्भकार परिपक्व कुम्भ पर चित्रकारी करता है । शिल्पी ने घट पर कुछ तत्त्वोद्घाटक संख्याओं का चित्रण किया है। 'नौ' संख्या की विचित्रता को इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है : "९९ संख्या को/दो आदि संख्याओं से गुणित करने पर भले ही संख्या बढ़ती जाती उत्तरोत्तर,/परन्तु लब्ध-संख्या को परस्पर मिलाने से/९ की संख्या ही शेष रह जाती है । यथा : ९९ x २ = १९८, १ + ९+ ८ = १८, १+ ८ = ९ ९९ x ३ = २९७, २ + ९+ ७ = १८, १+ ८ = ९ ९९ x ४ = ३९६, ३+ ९ + ६ = १८, १+ ८ = ९" (पृ. १६६) इस प्रकार ९ की संख्या में वैचित्र्य है। प्रस्तुत ग्रन्थ में ९९ की संख्या को अशुभ माना है, क्योंकि संसार ९९ का चक्कर है तथा ९ को शुभ माना है, क्योंकि वह 'नव जीवन का स्रोत है । इसी सन्दर्भ में ३ एवं ६ की संख्या का उल्लेख करके ३६, ६३ तथा ३६३ आदि संख्याओं की नवीन व्याख्याएँ की हैं। ५. संगीत कला संगीत का प्रारम्भिक सूत्र 'सा रे ग म प ध नि' है । प्रस्तुत रचना में जब सेठ का सेवक कुम्भ लेने कुम्भकार के पास जाता है तो घट की निर्दोषता ज्ञात करने के लिए उसे बजाता है । उससे सप्त ध्वनियाँ निस्सृत होती हैं जिसे 'सरगम' कहते हैं। आचार्यप्रवर ने 'सा रे ग म प ध नि' का अर्थ बोध इस प्रकार कराया है : “सा रे ग "म यानी/सभी प्रकार के दुःख प'ध यानी ! पद-स्वभाव/और/नि यानी नहीं, दुःख आत्मा का स्वभाव-धर्म नहीं हो सकता, ...सही संगीत में खोना है/सही संगी को पाना है।" (पृ. ३०५) इसी प्रसंग में यह स्पष्ट किया गया है कि वाद्य कला में कुशल शिल्पी मृदंग के मुख पर स्याही लगाता है। हाथ की गदिया और मध्यमा के संघर्ष से जो मृदंग स्वर होता है वह “धाधिन धिन्धा "/धा धिन् धिन्.. धा..."आदि है, जो यही सन्देश देते हैं : "ता तिन तिन "ता"/ता तिन तिन "ता...
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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