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________________ 186 :: मूकमाटी-मीमांसा 66 ''ही' एकान्तवाद का समर्थक है 'भी' अनेकान्तवाद, स्याद्वाद का प्रतीक । " (पृ. १७२ ) इस प्रकार विभिन्न रूपों से ज्ञात होता है कि आचार्यप्रवर को जैनागम व जैनधर्म का समुचित ज्ञान है। २. जैनेतर ग्रन्थों व दर्शनों का ज्ञान प्रस्तुत काव्य में जैनेतर ग्रन्थों व दर्शनों का भी उल्लेख है, यथा: (क) जैनेतर ग्रन्थ : इस प्रकार के ग्रन्थों में विशेषतः 'रामायण' की घटनाओं का उल्लेख है (वैसे ये प्रसंग जैनागम के कथानकों में भी उपलब्ध हैं ) । उदाहरणार्थ - प्रथम अध्याय में मृग आता है, जिसकी तुलना - "बायें हिरण / दायें जाय - / लंका जीत / राम घर आय" (पृ. २५) इस सूक्ति से की है । इसी प्रकार बदले की भावना के प्रसंग में बाली से दशानन के बदला लेने की इच्छा (पृ. ९८) का उल्लेख है। एकान्तवाद व अनेकान्तवाद का अन्तर स्पष्ट करते हुए ग्रन्थकार कहता है : : "रावण था 'ही' का उपासक / राम के भीतर 'भी' बैठा था । यही कारण कि / राम उपास्य हुए, हैं, रहेंगे आगे भी । " (पृ. १७३) एक प्रसंग में लक्ष्मण-रेखा का उल्लेख है : "लक्ष्मण-रेखा का उल्लंघन / रावण हो या सीता राम ही क्यों न हों / दण्डित करेगा ही !” (पृ. २१७ ) एक स्थान पर उपमार्थ कहा है - " हनूमान अपने सर पर / हिमालय ले उड़ रहा हो !” (पृ. २५१) एवं एक प्रसंग में सीता की बन्धन - मुक्ति के लिए मन्दोदरी का विफल प्रयास (पृ. ४२१) प्रस्तुत किया है । आतंकवाद के प्रकरण में लक्ष्मण के उबलने (पृ. ४६७) का उल्लेख है । इनके अतिरिक्त, महादेव के तृतीय नेत्र (पृ. ४२८) का कथन शैवागमानुसार है । O (ख) दार्शनिक शब्दावली : काकतालीय- न्याय (पृ. ३८५), पारिशेष्य- न्याय (पृ. ४३०) दार्शनिक शब्दावली के प्रयोग हैं। कार्य-कारण व्यवस्था का उल्लेख कई स्थानों पर है । बादल-दल के प्रसंग में तो कारण के दो भेदों - निमित्त कारण व उपादान कारण का उल्लेख किया गया है : "केवल उपादान कारण ही / कार्य का जनक है यह मान्यता दोष-पूर्ण लगी, / निमित्त की कृपा भी अनिवार्य है । हाँ ! हाँ ! / उपादान - कारण ही / कार्य में ढलता है यह अकाट्य नियम है,/ किन्तु / उसके ढलने में निमित्त का सहयोग भी आवश्यक है।” (पृ. ४८०-४८१) (ग) दार्शनिक शैली : कदाचित् दार्शनिक शैली का भी प्रयोग है : 66 0 'प्रति वस्तु जिन भावों को जन्म देती है उन्हीं भावों से मिटती भी वह / वहीं समाहित होती है।" (पृ. २८२) "प्रति पदार्थ / अपने प्रति / कारक ही होता है / परन्तु पर के प्रति / उपकारक भी हो सकता है।” (पृ. ३९-४०)
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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