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178 :: मूकमाटी-मीमांसा
प्रतिकार के रूप में अपने बल का परिचय देते मस्तक के बल भू-कणों ने भी/ओलों को टक्कर देकर उछाल दिया शून्य में/बहुत दूर "धरती के कक्ष के बाहर, 'आर्यभट्ट', 'रोहिणी' आदिक
उपग्रहों को उछाल देता है/यथा प्रक्षेपास्त्र!" (पृ. २५०) अलंकार आगे बढ़ता है, प्राकृतिक कोमल छटा का अनुभव कराते हुए :
"इस टकराव से कुछ ओले तो/पल भर में फूट-फूट कर बहु भागों में बँट गये,/और वह दृश्य/ऐसा प्रतीत हो रहा है, कि स्वर्गों से बरसाई गई/परिमल-पारिजात पुष्प पाँखुरियाँ ही मंगल मुस्कान बिखेरती/नीचे उतर रही हों, धीरे-धीरे !
देवों से धरती का स्वागत- अभिनन्दन ज्यों।" (पृ. २५०-२५१) बढ़ते हुए अलंकार प्रवाह की एक और झाँकी अपने मानस पटल पर अंकन के योग्य है :
"ओलों को कुछ पीड़ा न हो,/यूँ विचार कर ही मानो उन्हें मस्तक पर लेकर/उड़ रहे हैं भू-कण ! सो"ऐसा लग रहा है, कि/हनूमान अपने सर पर
हिमालय ले उड़ रहा हो !" (पृ. २५१) उपमा : इस अलंकार को आचार्यश्री ने विशेष गौरवान्वित किया है । विशेषता यह है कि उपमान छोटे रूप में न होकर विशालता से संवलित हैं, यथा :
"दिनकर तिरोहित हुआ"सो/दिन का अवसान-सा लगता है
दिखने लगा दीन-हीन दिन/दुर्दिन से घिरा दरिद्री गृही-सा।"(पृ. २३८) उर्दू कविता के समान-सा उदाहरण :
“शाम से ही कुछ बुझा सा रहता है
दिल हुआ है चिराग़ मुफलिस का।" अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'प्रिय प्रवास' के आरम्भ में सन्ध्या काल का चित्र यों खींचा है :
"दिवस का अवसान समीप था/गगन था कुछ लोहित हो चला। तरु शिखा पर श्री अब राजती/कमलिनी- कुल-बल्लभ की प्रभा । अधिक और हुई नभ-लालिमा/दश दिशा अनुरंजित हो गईं।
सकल पादप पुंज हरीतिमा/अरुणिमा विनिमज्जित-सी हुई॥" तुलनात्मक रूप से देखा जाय तो उपाध्यायजी के उपमान में विस्तार तो है, किन्तु वह सार्वत्रिक उतना अनुभव आधारित नहीं है।