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मूकमाटी-मीमांसा :: 177
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शोध-भाव को नमन हो रहा है।" - ४ (पृ. १०६) उपर्युक्त रुबाई १, २, ३, ४ - पंक्तियों को एक साथ पढ़ने पर प्राप्त होती है-सभी प्रकार से पूर्ण एवं क़ाफ़िया (.....) रदीफ़ (.....) से सुसज्जित।
___सुष्ठु शब्द संगुम्फन एवं विमल वाक्य विन्यास के उदाहरण देना आवश्यक नहीं हैं। वे तो उपवन में फूलों की तरह रंग-बिरंगे रूपों में 'मूकमाटी' में बिखरे हुए हैं। अलंकार : ग्रन्थ में अलंकार, वस्तुत: भाषा की सौन्दर्य वृद्धि ही करते हैं, उसे बोझिल नहीं बनाते। कुछ प्रमुख शब्दालंकारों एवं अर्थालंकारों की चर्चा ही सम्भव होगी : अनुप्रास : ० "जल को जड़त्व से मुक्त कर/... उत्तुंग-उत्थान पर धरना,
धृति-धारिणी घरा का ध्येय है।" (पृ. १९३) यमक : ० "यह सन्ध्याकाल है या/अकाल में काल का आगमन !" (पृ. २३८)
"कोई अकेला/कर में ले केला!" (पृ. ३१४) "आज श्वास-श्वास पर/विश्वास का श्वास घुटता-सा।" (पृ. ७२)
"मर हम मरहम बनें।" (पृ. १७४) श्लेष : . ० "यही मेरी कामना है/कि /...काम ना रहे !" (पृ. ७७)
शब्द कामना' एवं 'काम ना' में सभंग श्लेष छटा द्रष्टव्य है, जो वैष्णव कविता से एक तुलनीय उदाहरण रूप भी है:
"जहाँ यमना है, तहाँ यम ना है।" काव्यलिंग :0 "अपने साथ दुर्व्यवहार होने पर भी/प्रतिकार नहीं करने का
संकल्प लिया है धरती ने,/इसीलिए तो धरती सर्व-सहा कहलाती है/सर्व-स्वाहा नहीं ..।" (पृ. १९०)
"मेरा नाम सार्थक हो प्रभो !/यानी/'गद' का अर्थ है रोग 'हा' का अर्थ है हारक/मैं सबके रोगों का हन्ता बनूं
"बस,/और कुछ वांछा नहीं/गद-हा गदहा!'' (पृ. ४०) नोट : यह एक विचित्र संयोग (एवं विश्वास) राजस्थान के कुछ भागों में अभी भी प्रचलित है कि गदहे का रेंकना शीतला रोग को मिटाता है । गदहे कुम्भकारों के यहाँ रखे जाते हैं और यहाँ कुम्भकार अनेक स्थानों पर शीतला माता के मन्दिरों में पुजारी होते आए हैं। गदहा शीतला का 'वाहन' भी है। श्लेष गर्भित काव्यलिंग का एक और सुन्दर उदाहरण द्रष्टव्य है :
"कृपाण कृपालु नहीं हैं/वे स्वयं कहते हैं।
हम हैं कृपाण/हम में कृपा न !" (पृ. ७३) उत्प्रेक्षा : इस अलंकार का विज्ञान मण्डित रूप इस उदाहरण में प्रस्तुत है :
"लेखनी से हुई इस तुलना में/अपना अवमूल्यन जान कर ही मानो, निर्दय हो टूट पड़े/भू-कणों के ऊपर अनगिन ओले ।