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________________ जैन दर्शन पर आधारित प्रतीकात्मक महाकाव्य : 'मूकमाटी' डॉ. भानुदेव शुक्ल आचार्य विद्यासागर का महाकाव्य 'मूकमाटी' जैन दर्शन पर आधारित प्रतीकात्मक महाकाव्य है । किन्तु, इस संकुचित साम्प्रदायिकता का काव्य समझना भारी भूल होगा, क्योंकि यह मूलतः उस आध्यात्मिक चेतना का उन्नायक है जो प्राणिमात्र के प्रति करुणा सम्पन्न किसी भी धर्म का मूलाधार मानी जा सकती है । सामान्य माटी को सुपात्र अथवा मंगल घट का रूप धारण करने के पहले न जाने कितनी साधनाओं तथा तपस्या में सभी विकारों का होम करना आवश्यक होता है । इनमें सबसे प्रमुख है 'स्व' - भावना का त्याग, जो परिग्रह का विकास करती है। माटी जब घट बन जाती है तो उसका धर्म हो जाता है धारण किए हुए के कण-कण को बाँट देना । ऐसे जन, जो इस धर्म का पालन करते हैं, सन्तजन कहलाते हैं । शास्त्रीय परिभाषा में बँधकर 'मूकमाटी' को खण्ड काव्य ही माना जाएगा । किन्तु, महाकाव्य का फलक जितना व्यापक हुआ करता है उसके अनुसार इसको महाकाव्य मानना ही उचित है । यह ऐसा महाकाव्य है जिसमें अध्यात्म का निगूढ़ रहस्य तथा गहन जीवन तत्त्व प्रकट हुआ है। ऐसी रचनाओं में कथा तत्त्व अत्यन्त क्षीण हुआ करता है । 'मूकमाटी' में भी कथानक अत्यल्प है। प्रतीक में होने तथा दर्शन प्रधान होने से निश्चय ही महाकाव्य आम आदमी को जटिल लगेगा । प्रतीक तो सीधा और स्पष्ट है किन्तु उसके साथ अनेक प्रसंग जुड़े हैं जो तत्त्व चिन्तन से भारी हो गए हैं । अर्थात् काव्य पीछे छूट गया है और अध्यात्म विवेचन प्रमुख हो गया है । प्रतीक में प्रस्तुत (प्रत्यक्ष ) के माध्यम से अप्रत्यक्ष की व्यंजना होती है। 'मूकमाटी' में प्रस्तुत है सामान्य माटी, उसके परिशोधन, कुम्भ के आकार देने तथा पक्व बनाने के प्रसंग । अप्रस्तुत है सामान्य का ईश्वर बनने की प्रक्रिया, जिसमें साधना के बल पर 'स्व' की अहंकार मूलकता से मुक्ति पाकर निर्मल चरित्र को पाना । कवि - आचार्य ने इसी को पुरुषार्थ कहा है। शरीर - धर्म में मानव अन्य प्राणियों के समान है किन्तु अध्यात्म की सिद्धि द्वारा वह विशिष्ट बन जाता है । यदि मानव अपने विवेक को सुप्त रहने देता है तो वह किस अर्थ में प्राणियों में श्रेष्ठतम है ? सामान्य माटी कुम्भकार की कल्पना को सार्थक करती है तब वह मंगल घट बन जाती है। उसमें परमात्मा की अभिव्यक्ति होने लगती है, वह मूकमाटी नहीं रह जाती : "आस्था के तारों पर ही / साधना की अंगुलियाँ / चलती हैं साधक की, सार्थक जीवन में तब / स्वरातीत सरगम झरती है !" (पृ. ९) कवि - आचार्य की शब्दों की व्युत्पत्ति तथा उनमें अन्तर्निहित अर्थों की तलाश में विशेष रुचि दिखाई देती है : D 'कुं' यानी धरती/ और / 'भ' यानी भाग्य -, -/ यहाँ पर जो भाग्यवान् भाग्य-विधाता हो / कुम्भकार कहलाता है ।" (पृ. २८) 44 O “अपराधी नहीं बनो / अपरा 'धी' बनो, / 'पराधी' नहीं पराधीन नहीं/ परन्तु /अपराधीन बनो !” (पृ. ४७७ ) "स्वप्न प्राय: निष्फल ही होते हैं / इन पर अधिक विश्वास हानिकारक है । 'स्व' यानी अपना / 'प्' यानी पालन - संरक्षण / और / 'न' यानी नहीं।" (पृ. २९५) O
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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