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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: xxi का अस्तित्व ही समाप्त हो जायगा। प्र. मा. - 'कामायनी'गत शैव दर्शन में इच्छा, ज्ञान और क्रिया- ये तीन शब्द मैंने पहले कहे थे । इन तीनों को आप क्या एक समझते हैं ? एक साथ मानकर चल रहे हैं ? आ. वि.- प्रत्येक क्रिया में कोई सहयोग आवश्यक होता है । वह तो अपने आप चलता ही रहता है । हम बोल रहे हैं तो इस समय वचन-वर्गणाएँ आ ही रही हैं, मन के माध्यम से विचार भी चल रहा है। प्र. मा.- परन्तु, अकेले मनुष्य या सामूहिक मनुष्यों के विकास में पहले इच्छा रहती है, फिर ज्ञान आता है और फिर क्रिया बहुत बाद में होती है, ऐसा प्राणीशास्त्र विज्ञान कहता है । इसमें अवस्था भेद से-छोटेपन से बड़ेपन में या कि एक आदिवासी समाज में और एक अत्यन्त सम्पन्न आज का जो यान्त्रिक समाज है, इसके बीच में जो कुछ परिवर्तन होता है, उसके सम्बन्ध में आपके क्या विचार हैं ? आ. वि.- इस सम्बन्ध में तो यह है कि प्रत्येक व्यक्ति प्रारम्भ में आदिवासी होकर ही आदिनाथ भगवान् का उपासक बनता है और फिर आदिनाथ बन जाता है । लेकिन अन्य दशाओं का वह एकदम गौणीकरण कर देता है । प्रत्येक आदमी जब पहला क़दम रखता है, उस समय वह बालक ही माना जायगा। प्र. मा.- यानी प्रत्येक व्यक्ति पुन: बालक बन सकता है ? आ. वि.- बालक ही है वह । जिस दिशा में वह चलना चाहता है, एक चरण रखता है तब वह बालक ही रहता है। बालक से ही पालक बनता है। प्र. मा.- तो क्या यह सम्भव है कि किसी वृक्ष के लिए वह फिर से वहीं पहुँच जाय जहाँ से प्रारम्भ किया ? प्रत्येक वृक्ष फिर बीज बनेगा ? क्या खिला हुआ फूल फिर कली बन जायगा ? आ. वि.- नहीं ! इसे यूँ कहना चाहिए कि यदि अभी बनने की प्रक्रिया ही नहीं हुई है तो उसको हम चलना नहीं मानेंगे। प्र. मा.- केवल इच्छा है ? आ. वि.- हाँ ! केवल इच्छा है। अभी ज्ञान और क्रिया नहीं आ पाई । क्रिया हो रही है लेकिन समीचीन क्रिया होनी चाहिए। तभी इच्छा पूर्ण हो पाएगी । मात्र इच्छा ही ज्यों-कि-त्यों बनी रहती है तो क्रिया फलीभूत नहीं होती-“यस्मात् क्रिया: प्रतिफलन्ति न भावशून्याः” (कल्याणमन्दिर-स्तोत्र/३८) यानी भाव से शून्य क्रिया फलीभूत नहीं हो पाती। प्र. मा.- ये सारा आपने आत्मनिष्ठ विवेचन किया । मैं थोड़ी वस्तुनिष्ठता की बात चाहता हूँ। आपके दृष्टिकोण में कोई जड़ या बाहर की पृथ्वी या भौतिक जगत् नहीं है ? या है ? या केवल आभास है मन में या केवल विवर्त आ. वि.- ऐसा है - वैसे यदि देखा जाय तो आभास भी है और वैसे... प्र. मा.- क्या केवल कल्पना है महाराज ? दुनिया जो है - 'माई वर्ल्ड इज माई विल'- ऐसा हावर ने कहा है । क्या केवल एक मिथ्या है', जैसा शंकराचार्य कहते हैं ? आ. वि.- एकान्त रूप से मिथ्या ही कहें, ऐसा भी नहीं है । क्योंकि मिथ्या को कहने के लिए जो शब्द प्रयोग किए जाएँगे तो फिर वो भी मिथ्या ही हो जाएंगे। जैसे शंकराचार्य ने कहा कि यह संसार जो है, वह मिथ्या है । तो यह संसार मिथ्या कहने वाले जो वचन हैं, वे भी मिथ्या हैं। ऐसा तो नहीं है कि इन वचनों के माध्यम से हमें कुछ भी नहीं मिला है। वह केवल बुद्धि है, उच्चरित शब्दार्थ की समझ तो है ही। यदि यह एकान्ततः मान लिया जाय कि यह सारा का सारा संसार झूठ है, तब जो शब्द सुना जा रहा है, वह भी झूठ है। इसलिए
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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