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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 153 अभ्युदय इसी निर्माण मार्ग को प्रशस्त करता है । शब्द हमारे सामने यूँ ही बिखरे पड़े होते हैं किन्तु जब कभी वे हमारी अनुभूति का मंगल द्वार खोलकर अपना विराट् अर्थरूप प्रकट करते हैं तो हमारी आँखें खुली की खुली रह जाती हैं । तब ज्ञानचक्षु हमें उनके सही रूप का दर्शन कराते हैं। ऐसा ही एक शब्द है - दिगम्बर । इस शब्द की अर्थानुभूति मुझे तब हुई जब मैंने राजगढ़ (ब्यावरा) म. प्र. पागल मोड़सींग को उस हालत में देखा जब उसने ठण्ड में ठिठुरते हुए एक भिखारी को अपने शरीर से सारे कपड़े उतारकर उढ़ा दिए। वह दिगम्बर पात्र मेरे मन में अनुभूति के धरातल पर आया तो मैंने कई शब्दों की अर्थध्वनियों को अनुभूत किया, खासकर 'दिगम्बर' शब्द को । 'मोड़सींग' शीर्षक से एक कविता लिखी जिसका एक अंश प्रसंगवश देना मुनासिब लग रहा है : " तभी एक नंगा गुजरा था । / और तुमने / उतारकर दे दिया अपना अँगरखा उसे/खुद नंगे हो गए / तब पहली बार जाना था मैने दिगम्बर शब्द का अर्थ / दसों दिशाएँ हाथ जोड़े / खड़ी थीं तुम्हारे सामने - वस्त्र बनकर / उस वक्त तुम / कितने ही दिग्विजयसिंहों से भी ज्यादा विजयी लग रहे थे मोड़सींग / मैने पहली बार जाना मोड़सींग ! कि परपीड़ा के ख्याल से भी / पागल हो सकता है आदमी ।" अपनी कविता 'मोड़सींग' के इस काव्यांश द्वारा मैं अपने कवि की कोई उपस्थिति इस आलेखन में दर्ज नहीं करा रहा हूँ, बल्कि दिगम्बर जैसे एक शब्द के स्वानुभूत संसार को उपस्थित करते हुए यह कहना चाहता हूँ कि 'मूकमाटी' में ऐसे असंख्य शब्द हैं जो अनुभूति की कोख से जन्म लेकर महाकाव्य में अपनी निश्छल किलकारियाँ बिखेर रहे हैं । आप अपने वात्सल्य भाव से उन्हें अपने मन की गोद में बिठा लेंगे तो उनकी अर्थ केलियों का अपार आनन्द ले सकते हैं। साहित्य के बहुविध पक्षों पर शोध करने और करवाने वालों के लिए अखण्ड साधना की जरूरत है । प्रगतिशील दृष्टि से भी इस महाकाव्य पर प्रकाश डाला जा सकता है, जो इसमें है । 1 अन्त में, 'मूकमाटी' से ही एक सूक्त वाक्यांश लेकर विनम्र भाव से यह कहना चाहूँगा कि 'मूकमाटी' के 'काव्य रूप के बहाने कुछ स्फुट विचार' यहाँ इस शीर्षक से प्रस्तुत किए हैं। इन्हें किसी विधि विधान से रचे निबन्ध के रूप में न देखकर 'मूकमाटी' जैसे महाकाव्य पर प्रकट स्फुट विचार के रूप में ही लें। मैं भी आप जैसा एक पाठक हूँ जिसने एक महान् कृति को पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की है । 'मूकमाटी' का सूक्त व्याक्यांश है - " खम्मामि खमंतु मे” अर्थात् सबको क्षमा करते हुए सबसे क्षमा चाहता हूँ, उनसे भी जो इसे पढ़कर अपना वक्त जाया कर रहे हैं और उनसे भी जो इन स्फुट विचारों से सहमत या असहमत हो रहे हों । पृष्ठ १४३ स्वर संगीत का प्राण है। - हे देहिन् ! हे शिल्पिन् !" --- D
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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