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________________ 152 :: मूकमाटी-मीमांसा किया जाए तो 'मूकमाटी' का सम्प्रेषण साधारणजन तक आसानी से हो सकता है। ___ मुक्त छन्द के काव्य रूप में विरचित 'मूकमाटी' में संस्कृत से लेकर अपभ्रंश तक का पद-लालित्य भी कम नहीं है और आधुनिक गीत की लयात्मकता भी। 'मूकमाटी' में अनेक ऐसे स्थल हैं, जो गेय हैं, जिनकी सांगीतिक प्रस्तुतियाँ की जा सकती हैं एवं जो विविध राग-रागिनियों में बाँधे जा सकते हैं। इसमें समूह गीत भी हैं, जैसे : "जय हो ! जय हो ! जय हो !/अनियत विहारवालों की नियमित विचारवालों की/सन्तों की, गुणवन्तों की सौम्य-शान्त-छविवन्तों की/जय हो ! जय हो ! जय हो !" (पृ. ३१४) पूरे महाकाव्य में एक अन्तर्लय मानों काव्य की सरिता कल-कल की तरह व्याप्त है। हिन्दी में मुक्त छन्द के प्रवर्तक महाकवि निराला माने जाते हैं जो गीत और संगीत के भी उतने ही ज्ञाता रचनाकार रहे। वेदों की ऋचाओं के गान से लेकर मुक्तक काव्य की सांगीतिक संगति तक उनका गहरा ज्ञान था। इसके बाद उन्होंने मुक्त छन्द को स्वीकारा तो उसके कई कारण रहे । मुक्त छन्द भी अपने आप में एक सधा हुआ छन्द है, जिसमें पाठ का कौशल है और जो अभिव्यक्ति में आने वाली उन बाधाओं को पार करता हुआ अबाधित गति से क्रियमाण रहता है जो तुक के बन्धन से बाधित हो जाया करती है। इस कारण मुक्त छन्द को अतुकान्त छन्द भी कहा जाता है । अतुकान्त से तात्पर्य पद्य में आने वाली तुकों का अभाव । तुक के कारण जब वर्ण्य व्यापार सीमित होता लगा तो तुक का मोह छोड़कर काव्य के सटीक रचाव के लिए मुक्त छन्द की आवश्यकता महसूस हुई और इसमें दो राय नहीं कि मुक्त छन्द द्वारा कविता को असीम विस्तार मिला । वह बन्धनमुक्त हुई और उसका स्वाधीन व्यक्तित्व विकसित होने लगा। दर्शन जैसे गूढ विषय को काव्य में ढालना एक दुष्कर कर्म है फिर उसे तुकाश्रित होकर प्रेषित करना तो और भी दुर्वह है । अत: कविवर विद्यासागर ने इस छन्द को स्वीकारा और मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि 'मूकमाटी' हिन्दी का अकेला ऐसा महाकाव्य है जो मुक्त छन्द में लिखा गया है और जिसमें वे रूप भी अन्तर्निहित हैं, जो परम्परा प्रणीत हैं। इसके अलावा भवानीप्रसाद मिश्र की सपाट बयानी, अज्ञेय का शब्द विन्यास, निराला की छान्दसिक छटा, पन्त का प्रकृति व्यवहार, महादेवी की मसृण गीतात्मकता-जहाँ करुणा, जीवन का एक मूल्य बनकर आती है, नागार्जुन का लोक स्पन्दन, केदारनाथ अग्रवाल की बतकही वृत्ति, मुक्तिबोध की फैंटेसी-संरचना और धूमिल की तुक संगति आधुनिक काव्य में एक साथ देखनी हो तो वह 'मूकमाटी' में देखी जा सकती है । यह कहते हुए एक बात स्पष्ट कर दूं कि इनमें से किसी भी कवि का प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव मूकमाटी' के रचनाकार पर कतई नहीं है। सन्त प्रकृति में विचरण करते हैं। प्रकृति का स्पर्श करते हैं वे । वह उनमें रच-पच जाती है । वे उसे अपनी ज्ञानेन्द्रियों में संवेदित कर अभिव्यक्त करते हैं। देशाटन से जो अनुभव, लोक-सम्मिलन से जो भाषा, जो प्रतीतियाँ, जो व्यंजना, जो राग-विराग, जो अन्तर्बाह्य संवाद-प्रतिसंवाद होता रहा है वह सन्तों की वाणी द्वारा जन-जन तक प्रवाहित होता रहा है। आचार्य विद्यासागरजी का 'मूकमाटी' महाकाव्य इसी बृहद् अनुभूति की महासृष्टि है। एक वाक्य में कहा जाए तो - 'मूकमाटी' को अनुभूति का महाकाव्य कहा जा सकता है। करुणा, दया, प्रेम, शान्ति, अहिंसा के दुग्ध में उठते झाग जैसी यह अनुभूति पूरे महाकाव्य में प्रच्छन्न रूप में व्याप्त है। बिलोते हुए दही की मथानी में तैरते हुए नवनीत की तरह यह अनुभूति' महाकाव्य की अन्तवर्ती नायिका जैसी है । एक जगह इसी आलेख में 'भी' को महाकाव्य का अन्तवर्ती नायक निरूपित किया गया है । यहाँ अनुभूति को अन्तर्वर्ती नायिका । ये दोनों 'ही' रूपी खलनायक को पराभूत कर महावीर का पद प्राप्त करते हैं। अनुभव जब अनुभूति बनता है तो उसका यह रूपान्तरण स्थूल ज्ञानेन्द्रियों से सूक्ष्म ज्ञानेन्द्रियों की आभा से होता है और तब अनुभूति सुषुप्तावस्था में जागृति का संचरण कर आत्मा को निरन्तर संस्कारित करती हुई उसे परम आत्मा तक पहुँचाने का सुमार्ग सुझाती रहती है। 'मूकमाटी' महाकाव्य की अनुभूति का
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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