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136 :: मूकमाटी-मीमांसा के सामने सत्य का समर्पण ठीक नहीं। इससे तो असत्य का शासन आ जाएगा तथा इससे सब गड़बड़ा जाएगा।
"सती अनुचरी हो चलेगी/व्यभिचारिणी के पीछे-पीछे ।" (पृ. ४७०) संकट की इस पराकाष्ठा के बाद देवताओं में भी मानों खलबली और लज्जा फैल गई। वे सभी सेठ के रक्षणार्थ प्रस्तुत हुए और अपनी मजबूरी पर लज्जा प्रस्तुत करते हैं । अन्ततः, विजय श्रद्धा, भक्ति एवं सहकार्य की ही होती है । आतंकवाद का हृदय परिवर्तित होता है । वे माँ से क्षमा-याचना करते हैं और वत्सला माँ अपनी अपार करुणा देकर उसका परिमार्जन ही करती है । अब श्रीगणेश होता है अनन्तवाद का । कुम्भ के पीछे पंक्तिबद्ध परिवार चल रहा है, जैसे एक माँ की सन्तान एक जान की तरह चलते हैं। इतने कष्टों के बाद भी वे सब की मंगल-कामना करते हैं। कुम्भ भी तट का चुम्बन करता है । अरे ! पार लगाने वाली रस्सी कितनी भोली, सरल है जो कटि में बँधकर, पार लगाकर भी इसलिए दु:खी है कि उसके बन्धन से परिवार को कष्ट हुआ । आचार्य निमित्त और उपादान के तत्त्व दर्शन को भी समझाते हैं। घट के कार्य से माँ अति प्रसन्न है। माँ यही उपदेश देती है कि समर्पित की ही बड़ी-बड़ी परीक्षाएँ होती हैं। इसका श्रेय कुम्भकार को है जिसने यह रूप प्रदान किया। पर, कुम्भकार अधिक विनम्र है। वह इस सबका श्रेय सन्तों की कृपा को देता है।
सभी का ध्यान जाता है एक साधु की ओर । आतंकवाद स्वयं साधु से परित्राण का मार्ग पूछता है । सेठ का परिवार गद्गद है साधु दर्शन से । सभी ऐसे वचन का आग्रह करते हैं जिससे भव पार हो जाएँ। तब आचार्य जैसे अपनी वाणी से अपने मनोभावों को प्रस्तुत करते हैं :
"गुरुदेव ने मुझसे कहा है/कि/कहीं किसी को भी/वचन नहीं देना, क्योंकि तुमने/गुरु को वचन दिया है :/हाँ ! हाँ !/यदि कोई भव्य भोला-भाला भूला-भटका/अपने हित की भावना ले विनीत-भाव से भरा-/कुछ दिशा-बोध चाहता हो/तो. हित-मित-मिष्ट वचनों में/प्रवचन देना-/किन्तु
कभी किसी को/भूलकर स्वप्न में भी/वचन नहीं देना।" (पृ. ४८६) मुनिश्री कर्म का क्षय, मोक्ष के मार्ग सम्बन्धी अपनी अमृतवाणी से आप्लावित करते हैं । वे गुरु के शब्दों पर विश्वास करने को कहते हैं :
"शब्दों पर विश्वास लाओ,/हाँ, हाँ !!
विश्वास को अनुभूति मिलेगी।" (पृ. ४८८) इस पवित्र वातावरण को स्नेह, श्रद्धा भक्ति से निहार कर धन्य हो रही है मूकमाटी।
भावों की दृष्टि से यह कृति जितनी समृद्ध है, कलापक्ष की दृष्टि से भी उतनी ही समृद्ध है। काव्य की भाषा अति मधुर, विचारों के अनुकूल है । भाषा और भाव परस्पर के पूरक बने हैं। कवि ने गहनतम सिद्धान्तों को भी सरल भाषा में प्रस्तुत किया है । कवि विद्यासागर शब्दों के शिल्पी ही नहीं, उनसे खेलते भी हैं, उन्हें मथते हैं और नए अर्थोंसन्दर्भो का नवनीत निकालते हैं। कृति में अनेक उदारण हैं जिनमें से यहाँ कुछ ही प्रस्तुत हैं जो शब्दों के और वैचारिक विशालता के परिचायक हैं । कुम्भकार का अर्थ देखिए :
" 'कुं' यानी धरती/और/'भ' यानी भाग्य-/यहाँ पर जो