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मूकमाटी-मीमांसा :: 119 घर लाकर कुम्भकार माटी को बारीक चालनी से छानता है । कोमल, मुलायम कंकड़ रहित मिट्टी के स्पर्श से वह प्रसन्न हो जाता है । संशोधित माटी उसे मानों ऋजुता और मृदुता का आभास कराती है । इस छानने की प्रक्रिया में निष्कासित कंकड़ वेदना और रोष से पीड़ित हो उठते हैं। उन्हें यही दुःख है कि आज वे अपनी माँ से पृथक् क्यों कर दिए गए। शिल्पी उन्हें उनकी स्थिति में बाधक बनता है । वे तो बेचारे कुट-पिसकर भी माँ के साथ रहना चाहते हैं पर कुटने के बाद भी उनका स्वभाव तो नहीं बदला जा सकता । माटी के साथ रहने पर भी उनमें माटी-सी मृदुता कब आई है ? वे जल से भीगने पर भी माटी की तरह फूलते भी कब हैं ? वे तो पाषाण हृदय हैं। वो कभी दूसरों के दर्द में पिघले ही नहीं। कंकड़ तो मान के प्रतीक हैं। शिल्पी द्वारा उनके दोष दर्शन कराने पर उनका हृदय रो पड़ता है। जैसे सन्त समागम से अहंवादी का अहम् मोम-सा पिघलने लगता है । वे रो-रो कर माँ माटी से वरदान माँगते हैं :
"ओ मानातीत मार्दव-मूर्ति,/माटी माँ ! एक मन्त्र दो इसे/जिससे कि यह/हीरा बने
और खरा बने कंचन-सा!" (पृ.५६) इस वरदान के लिए माटी उन्हें संयम की राह पर चलने का उपदेश देती है, राही बनना ही तो हीरा बनना है । इसके लिए तप की आग में तपकर राख तक बनना होगा । राख बनना ही तो खरा बनाती है।
कुम्भकार कुएँ में से बालटी के द्वारा जल निकालने को प्रस्तुत होता है पर वहाँ रस्सी की गाँठ से बाधा है । कवि यहाँ साधारण रस्सी को कर्म की गाँठ से तौलता है। शाम, दाम, दण्ड की नीति के प्रयोग की चर्चा भी करता है । पर जब तक गाँठ का सन्धि स्थान नहीं खोजा जाएगा, गाँठ कैसे खुलेगी ? अरे ! मसूड़े तक छिल जाएँगे मुँह से खोलने के प्रयास में ! पर जब सन्धि स्थान का पता चलता है तो गाँठ भी छूटती है । कवि पुन: गाँठ और रस्सी के आध्यात्मिक अर्थ को प्रस्तुत कर अहिंसा, मार्दव आदि गुणों को समझाता है - 'ग्रन्थि ही हिंसा की सम्पादिका होती है'(पृ. ६४)। खुली गाँठ में बँधी बालटी जल तक पहुँचती है कि जल के साथ एक मछली उसमें आकर प्रार्थना करती है :
"इस अन्ध-कूप से/निकालो इसे कोई
उस हंस रूप से/मिला लो इसे कोई।" (पृ. ६७) मछली का यह रुदन अरण्य रोदन ही बन कर रह गया। मछली में तड़प है जल से बाहर आने की। उसका नश्वर शरीर से मोह विगलित होने लगा। ईश्वर के प्रति प्यास बढ़ने लगी। संयमी कुम्भकार सावधानी से जीवहिंसा को बचाता हुआ बालटी कुएँ में डालता है । यह बालटी मानों मछली को यान-सी लगने लगी। जैसे उसकी पुकार सुन ली गई हो । उसे धर्म की शरण में जाने का शुभयोग मिलने वाला था। उसे लगा जैसे 'धम्मो दयाविसुद्धो' एक मात्र सन्देश उसके कानों में गूंजने लगा हो । मछली का जल से, अपनी सजातीय बहिनों से अलग होने की बात के साथ आचार्यश्री समाज में व्याप्त अपनों के द्वेष भाव एवं वर्तमान युग के दम्भ को प्रतीकों द्वारा प्रस्तुत कर बड़ा करारा व्यंग्य करते हैं :
“अब तो" अस्त्रों, शस्त्रों, वस्त्रों/और कृपाणों पर भी 'दया-धर्म का मूल है'/लिखा मिलता है ।/किन्तु, कृपाण कृपालु नहीं हैं/वे स्वयं कहते हैं
हम हैं कृपाण/हम में कृपा न!" (पृ. ७३) इस सन्दर्भ में मनुष्य के राग-द्वेष आदि भावों का मनोवैज्ञानिक पृथक्करण भी करते हैं।