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________________ 118 :: मूकमाटी-मीमांसा ... इस पर्याय की / इति कब होगी ? / इस काया की च्युति कब होगी ? / बता दो, माँ इसे !" (पृ. ४-५ ) माटी माँ से उद्धार का मार्ग पूछती है और बेटी को दुखी देखकर माँ विचलित हो जाती है । मानों उसे छाती से लगा कर, उसकी वेदना को समझ कर, उसे संसार की स्थिति, विकास आदि के बारे में समझाती हुई धौव्य तत्त्व के बारे में समझाती है और यथा संग तथा गुण प्राप्ति के सन्दर्भ में विविध उदाहरण देती है। वर्षा की बूँदें यदि धूल में गिरती हैं तो दल-दल बन जाती हैं; यदि नीम की जड़ों में गिरती हैं तो कटुता बन जाती हैं; लवणाकर में गिरकर सागर बनती हैं और यदि स्वाति काल में सीप में गिरें तो मोती बनती हैं तथा साँप के मुख में गिरकर जहर बन जाती हैं । इसलिए उत्तम संग उत्तमता प्रदान करता है । स्वयं की लघुता ही आत्मा की पहचान का उत्तम साधन है । सत्य को समझने के लिए हमें उसके निकट जाना होगा । आस्था के बिना रास्ता नहीं मिलता । प्रारम्भ में होने वाली भूलों को उत्तरोत्तर सुधारना होगा। जीवन में विषमताएँ मनुष्य को गुमराह कर सकती हैं। अत: उत्तरोत्तर दुःख को कसौटी के रूप में स्वीकार करके आगे बढ़ना होगा । धरती के उद्बोधन से माटी का हृदय कुछ शान्त होता है । और, तब पुनः माँ भविष्य का कथन करते हुए कहती है कि बेटा ! प्रात:काल कुम्हार आएगा, वही तुम्हें पतित से पावन बनाएगा । पावन बनने की यह बात माटी के हृदय को दोलायमान करती है । पावन बनने की प्रतीक्षा में उसे नींद नहीं आती । आखिर प्रभात होता है। धरती कोमल पलों की हरी साड़ी पहनकर प्रभात का अभिनन्दन करती है । सरिता के तट पर उठने वाला फेन मानों मंगल कलश सजाए है। प्रारम्भ में माटी को कुछ तनाव-सा लगता है। जिसका उदाहरण कवि, कुशल लेखक को भी नई निब से लिखने में होने वाली बाधा की तरह लगता है। कुम्हार की प्रतीक्षा करती हुई माटी दूर दिशा में देखती है कि श्रमिक चरण उसकी ओर बढ़ रहे हैं और फिर अपने सामने पाती है कुम्भकार को । कवि ने कुम्भकार का बड़ा ही सुन्दर अर्थ करते हुए उसे धरती का भाग्य विधाता सिद्ध किया है । कुम्हार मिट्टी खोदने से पहले ओंकार को नमन करता है। यह प्रभु नमन किसी भी कार्य के प्रारम्भ में अहंकार Shah लिए किया जाता है। नोकदार कुदाली से प्रहार सहते हुए भी मिट्टी बिलकुल नहीं रोती, क्योंकि इस कष्ट में भी भविष्य के उद्धार के भाव छिपे हुए हैं। खुदी हुई मिट्टी बोरियों में भरी जाती है। फटी हुई बोरियों से झाँकती हुई मिट्टी की कल्पना कवि उस नव विवाहिता वधू से करता है जो घूँघट से बार-बार बाहर झाँकती है। माटी गरीबों संगनी है। उनके छिद्रों को भरती है और तब 'पीड़ा की अति ही पीड़ा की इति' बन जाती है। माटी इतनी दयाशील है कि उसकी रगड़ से गदहे की पीठ पर जो छिलन हो रही है, उससे उसे दुःख होता है। उन घावों पर वह छेद में से छन-छन कर मलहम का काम कर रही है, क्योंकि उसे बार-बार यह अनुभूति होती है कि इस छिलन में निमित्त मैं ही हूँ। इस आत्मवेदना से ही वह विगलित हो जाती है तभी तो दया को श्रेष्ठ चरित्र माना है : D " दया का होना ही / जीव-विज्ञान का / सम्यक् परिचय है।” (पृ. ३७) " पर की दया करने से / स्व की याद आती है O और/स्व की याद ही / स्व-दया है ।" (पृ. ३८) O " वासना का विलास / मोह है, / दया का विकास / मोक्ष है ।" (पृ. ३८) कवि दया की महत्ता प्रतिपादित करता है । वह तो गदहे को भी स्वर देता है । कवि 'गद' का अर्थ रोग और 'हा' का अर्थ हारक करते हुए सर्व रोगों का हन्ता 'गदहा' होता है - ऐसा कहते हुए गदहे की उच्च मनोभावना प्रस्तुत करता है कि वह सबके दुःखों का हारक बन सके । कवि इसी सन्दर्भ में श्रम की महत्ता भी प्रस्तुत करता है ।
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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