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मूकमाटी-मीमांसा :: 115
मन, वचन, काय (शरीर) की निर्मलता से, शुभ कार्यों के सम्पादन से, लोककल्याण की कामना से पुण्य उपार्जित होता है । इस कृति में एक मच्छर के माध्यम से सामाजिक दायित्व बोध कराया गया है । इसे सचमुच में आधुनिक जीवन के अभिनव शास्त्र के रूप में ग्रहण करना चाहिए । यह आचार्य विद्यासागर की प्रज्ञा का सर्वश्रेष्ठ कल्पवृक्ष है । इसका अध्ययन एवं मनन परितोषदायी एवं स्फूर्तिप्रदाता है । लोकजीवन के अनेक मुहावरों का भाषा में सहज तथा सरल प्रयोग करके, महाकवि ने सचमुच माटी के साथ औचित्यपूर्ण न्याय किया है। नव रसों के परिपाक के साथ ही संगीत की अन्तरंग प्रकृति से यह महाकाव्य अनुस्यूत है।
'मूकमाटी' के माध्यम से वर्तमान कुण्ठाग्रस्त एवं सन्त्रास से पीड़ित मनुष्य को नए सात्त्विक प्राण एवं चेतनाकेन्द्र दिए गए हैं । यह आधुनिक बोध में अध्यात्म के महत्त्व को समाहित करने वाली परम कृति है, जिसका हार्दिक स्वागत किया जाना चाहिए।
मैं आचार्य विद्यासागरजी का अभिनन्दन करता हूँ कि उन्होंने हिन्दी साहित्य को एक अत्यन्त बहुमूल्य, चिरस्मरणीय, मानक तथा वन्दनीय कृति का अवदान दिया और हमारी महाकाव्य की परम्परा, जो कि 'मानस', 'साकेत' तथा कामायनी' से सम्पुष्ट हुई है, उसे वास्तविक रूप में 'चरैवेति चरैवेति' का मूल मन्त्र प्रदान किया है। यह महाकाव्य प्रेय से श्रेय की सार्थक यात्रा करता है । यह महाकाव्य को भी महाकाव्य का आदर्श बताता है । इस प्रकार की रचनाओं से आज की मानसिकता में स्वस्थ तथा रचनात्मक परिवर्तन सम्भाव्य है, क्योंकि सन्त कवि एवं सन्त-परम्परा के उन्नायक तथा संवर्द्धक आचार्य विद्यासागर ने माटी के द्वारा लोकहित एवं विश्वमैत्री का सन्देश निस्सृत किया है। इसकी समाप्ति ही अविश्वास, हिंसा, आतंक, भय, साम्प्रदायिकता का कारण बन जाता है। ऐसी ही कृतियों से पीड़ित युग में आस्था तथा यथार्थ के धरातल पर स्वर्णिम मंगल घट का अवतरण होता है :
"क्षेत्र की नहीं,/आचरण की दृष्टि से/मैं जहाँ पर हूँ वहाँ आकर देखो मुझे,/तुम्हें होगी मेरी/सही-सही पहचान ...और/महा-मौन में/डूबते हुए सन्त" और माहौल को अनिमेष निहारती-सी/''मूकमाटी।" (पृ. ४८७-४८८)
पृष्ठ ३५५ यह लेखनी श्री... हमारीभी यही भावना है।