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________________ मूकमाटी के ममतीले स्वरदाता : आचार्य विद्यासागर प्रो. (डॉ.) पद्मश्री लक्ष्मी नारायण दुबे आचार्य विद्यासागर आधुनिक राष्ट्रीय सन्त हैं, इसलिए वे ज़मीन से जुड़े हैं और मूक माटी को स्वर एवं वाणी प्रदान करते हैं । मध्यकालीन सन्तों की दो विशेषताएँ रही हैं--एक तो उन्होंने जनभाषा का प्रयोग किया और दूसरे भारत की माटी के साथ सांस्कृतिक न्याय किया । इसी समृद्ध, पुनीत एवं सात्त्विक परम्परा का सफल एवं सार्थक निर्वाह आचार्य विद्यासागर में मिलता है । उनका व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व साधना की उच्चतर सीढ़ियों पर सतत आरोह्य का आलोक बिन्दु है। आचार्य विद्यासागर का जन्म कर्नाटक में हुआ और वे अहिन्दी भाषाभाषी हैं परन्तु उन्होंने राष्ट्रभाषा हिन्दी की अपूर्व एवं ऐतिहासिक सेवा की है। वे चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी की परम्परा को विकसित तथा प्रगतिशील बनाते हैं ताकि जनता की भाषा में जनता की बात कही जाय । इसीलिए महावीर स्वामी ने देववाणी संस्कृत को अस्वीकार करके प्राकृत को मान्यता दी, क्योंकि वे 'नोट' तथा 'वोट' की भाषा में पार्थक्य उपस्थित नहीं करना चाहते थे। आचार्य विद्यासागर की रचनाएँ सिर्फ हिन्दी में ही नहीं मिलती हैं अपितु उन्होंने अपने बहुभाषाविद् होने के प्रमाण स्वरूप संस्कृत, प्राकृत, बंगला एवं अंग्रेजी में भी अपनी सर्वतोमुखी प्रतिभा को अभिव्यक्ति प्रदान की है। वे मर्मी कवि, सफल अनुवादक, शास्त्रज्ञ, विद्वान् तथा चिन्तक भी हैं । उन्होंने अपने वाङ्मय को हित-मित-वचनामृत से जन-कल्याण में निरत कर दिया है। आचार्य विद्यासागर की साहित्य-तपस्या का उत्कर्ष कलश उनके महाकाव्य 'मूकमाटी' में मिलता है जो कि आधुनिक भारतीय साहित्य की एक उल्लेखनीय उपलब्धि है । इस सृजन के मूल में यह भाव है कि सात्त्विक सान्निध्य पाकर रागातिरेक से भरपूर शृंगार रस के जीवन में भी वैराग्य का उभार आना, जिसमें लौकिक अलंकार अलौकिक अलंकारों से अलंकृत हुए हैं। 'मूकमाटी' के मूल स्वर हैं : "...सामाजिक, शैक्षणिक, राजनैतिक और धार्मिक क्षेत्रों में प्रविष्ट हुई कुरीतियों को निर्मूल करना और युग को शुभ संस्कारों से संस्कारित कर, भोग से योग की ओर मोड़ देकर वीतराग श्रमण-संस्कृति को जीवित रखना है।" इस महान् कृति में चार खण्ड हैं। प्रथम खण्ड संकर नहीं, वर्ण-लाभ को लेकर चलता है । द्वितीय खण्ड में शब्द सो बोध नहीं, बोध सो शोध नहीं का मूलभाव है। तृतीय खण्ड में पुण्य का पालन एवं पाप-प्रक्षालन का एक सामयिक मुद्दा है। चतुर्थ खण्ड में अग्नि की परीक्षा और चाँदी-सी राख को निष्कर्ष रूप में प्रस्तुत किया गया है । इस महाकाव्य में मूकमाटी मंगल घट में परिणत हो जाती है। धर्म-दर्शन तथा अध्यात्म के सार को आज की रचनाधर्मिता में ढाला गया है । इसके केन्द्र में है मानव, जिसके कारण यह रचना आधुनिकता तथा प्रगतिशीलता से भी आपूर्ण हो गई है । लगभग पाँच सौ पृष्ठों की यह कृति महाकाव्य की गरिमा, उदात्त स्थिति तथा महत्ता से इसलिए विभूषित नहीं है, क्योंकि यह महाकाय है अपितु महाकाव्य के शास्त्रीय लक्षणों के अतिरिक्त, इसमें उसकी विराटता तथा गौरव भी निहित है। ___ भगवान् महावीर स्वामी ने राजकुमारी चन्दनबाला के माध्यम से समस्त नारी जाति के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त की थी। यही स्थिति इस महाकाव्य में भी परिलक्षित है। आचार्यश्री ने महिलाओं के प्रति अपनी आदर भावना को शालीनता के साथ पिरोया है।
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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