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________________ 100 :: मूकमाटी-मीमांसा अहिंसा का आश्रय ग्रहण करके धर्मानुरागी बन लोक कल्याण में प्रवृत्त हो जाते हैं । कवि की ये मौलिक चिन्तनाएँ और धर्म के प्रति अटूट आस्थाएँ हैं । तर्कसंगत संघटना I महाकाव्य का नाम कवि ने ‘मूकमाटी' दिया है। माटी कभी बोलती नहीं किन्तु उसकी महिमा अपार है । कबीर की ये पंक्तियाँ इस प्रसंग में सार्थक हैं: "माटी कहे कुम्हार से, तू क्यों रुँधै मोय । इक दिन ऐसा आयगा, मैं धौंगी तोय" । माटी की यह वेदना विद्यासागरजी को करुण बना गई और उन्होंने माटी पर 'मूकमाटी' महाकाव्य रच दिया । माटी ने अपनी शुद्धि यात्रा में चार सोपान चढ़े, इसलिए कवि ने महाकाव्य को चार खण्डों में विभक्त किया, जिनके नाम हैं क्रमश: - १. संकर नहीं : वर्ण - लाभ २. शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं ३. पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन और ४. अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख । पहले खण्ड में कंकर-कर्कट- कूड़े से युक्त मिट्टी को कुम्भकार द्वारा खोद-कूट-छानकर अपमिश्रण से मुक्त करने और उसको मृदु स्वरूप में लाने की प्रक्रिया का वर्णन है । दूसरे खण्ड में 'माटी' का उच्चारण मृदु शब्द है । इस शब्द का सम्पूर्ण अर्थ समझना बोध है। कुम्भकार माटी में निर्मल जल मिलाकर प्राण फूँकता है और इस बोध को अनुभूति में, आचरण में उतारना शोध है कि 'अज्ञानी ने नव ज्ञान पाया है। माटी जल मिश्रित हो कुलालचक्र पर लोंदा बन चढ़ी, कच्चे घट के रूप में सूखी और धर्म - संस्कार - चिह्नों से अंकित हो अहंकार को छोड़ चुकी है। तीसरे खण्ड में माटी ने मन, वचन, काय की निर्मलता से और शुभ कार्यों तथा लोक कल्याण के सम्पादन से पुण्य प्राप्त किया तथा क्रोध, लोभ, मान, माया, मोह का परित्याग कर पाप को धो डाला । महाप्रलय के मध्य पंच तत्त्वों की परस्पर स्पर्धा समाप्त कर कच्चा घट राजा को लोभ मुक्त कर देता है तथा स्वयं साधना की अगली यात्रा प्रारम्भ करता है । चौथा खण्ड अपने आप में एक महाकाव्य है । मंगल घट को अवे में तपाना, श्रेष्ठी से मंगल घट का सहचार, भ्रामरी वृत्ति हेतु आगत अतिथि- सन्त को भोजनदान तथा श्रेष्ठी का विराग और वीतराग सन्त की शरण में जाना ही चाँदी-सी राख पाना है। नीराग महामुनि ने कहा 'बन्धन रूप, तन, मन और वचन का आमूल मिट जाना मोक्ष है और मोक्ष पाकर संसार में आना सम्भव नहीं'। यही जीवन का उज्ज्वल पक्ष है, चाँदी है। इस प्रकार कवि ने महाकाव्य की संघटना तर्कसंगत विधि से करके अपने सृजन को प्रयोजनमूलक बनाया है। माटी के कल्याणकारी रूप के विकास के चार सोपान हैं- अकिंचनावस्था, साधनावस्था, सिद्धावस्था और प्रयोजनावस्था । उसने जिस सरिता तट से निरीहावस्था में मुक्ति यात्रा प्रारम्भ की थी, उसी सरिता तट में उसके उत्कर्षशील रूप मंगल घट ने आत्म कल्याण, लोक कल्याण और विश्व कल्याण के लिए मुक्ति यात्रा समाप्त की है। रचना का उद्देश्य 'मूकमाटी' की रचना क्यों की गई ? इस सम्बन्ध में कवि से स्वयं स्पष्टीकरण किया है । कवि ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में 'मानस तरंग' नामक भूमिका लिखी है। उसमें श्रमण संस्कृति में निहित दर्शन के सिद्धान्तों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि ऐसे ही कुछ मूलभूत सिद्धान्तों के उद्घाटन हेतु इस कृति का सृजन हुआ है । इसके सात्त्विक अनुशीलन से शृंगार रस के जीवन में वैराग्य उभर आता है, लौकिक अलंकार अलौकिक बन जाते हैं, शब्द को अर्थ और अर्थ को परमार्थ प्राप्त होता है, नूतन शोध प्रणाली को नई दृष्टि मिलती है, आध्यात्मिक काव्य सृजन की शुद्ध चेतना जाग्रत होती है, वर्ण-जाति-कुल की व्यवस्था के प्रति आस्था जगती है और शुद्ध-सात्त्विक जीवन में धर्म की प्रतिष्ठा होती है । सामाजिक, शैक्षणिक, राजनैतिक और धार्मिक क्षेत्रों में प्रविष्ट हुई कुरीतियों को निर्मूल करने, युग को शुभ संस्कारों से संस्कारित करने तथा भोग से योग की ओर मोड़कर श्रमण संस्कृति को जीवित रखने की निष्ठा उत्पन्न होती है (देखें - पृ. XXIV, भूमिका) । वीतराग श्रमण संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन के द्वारा पुरुषार्थ चतुष्टय-धर्म,
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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