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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 89 के बीच कभी कहीं कोई छोटा-मोटा कंकड़ भी दिखाई दे सकता है । 'प्रभु फर्माते हैं" (पृ. १५०) जैसे प्रयोग को इसी रूप में ग्रहण किया जाना चाहिए । यों ऐसे प्रयोग से किसी प्रकार के दूषण की कोई आशंका नहीं । उल्टे इसे शिशु के भाल पर माँ का लगाया दिठौना मानना उचित होगा । 1 'मूकमाटी' के शिल्पी ने जहाँ शिल्प को 'अनल्प श्रम, दृढ़ संकल्प (और) सत्-साधना संस्कार का फल' निरूपित करते हुए संगीत के सप्त स्वरों से 'नीराग नियति का उद्घाटन' और मृदंग की झनकार से ‘प्रकृति और पुरुष के भेद' को अत्यन्त कुशलतापूर्वक व्यक्त किया है (पृ. ३०४-३०६), वहीं कुछ 'तत्त्वोद्घाटक संख्याओं ' (पृ.१६६ पर) का अंकन कर अद्भुत अंक गणितीय चमत्कार भी कर दिखाया है । अंक शास्त्र की यह छटा कई पृष्ठों (पृ. १६९) तक बिखरती चली गई है। काव्यकार जब तक बहुज्ञ और बहुश्रुत न हो, वह लोक हितकारी काव्य की सृष्टि नहीं कर सकता । किन्तु 'मूकमाटी' का प्रणेता तो स्वयं सृष्टि का कोई सामान्य जीव न होकर एक तपस्वी, सन्त, साधक, चिन्तक विचारक, विद्वत् शिरोमणि, धर्माचार्य और तत्त्वान्वेषी 'युगपुरुष ऐसी महानतम विभूति की सत्य सिद्ध लेखनी से कोई भी विषय भला कैसे अछूता रह सकता है । यही कारण है कि 'मूकमाटी' मात्र जन-मनरंजक एक काव्य- -कृति नहीं अपितु ज्ञान-विज्ञान का बृहत् कोश है । काव्यकार ने स्वयं कहा है : "मैं यथाकार बनना चाहता हूँ/ व्यथाकार नहीं । / और / मैं तथाकार बनना चाहता हूँ/ कथाकार नहीं । / इस लेखनी की भी यही भावना है - / कृति रहे, संस्कृति रहे/आगामी असीम काल तक/ जागृत जीवित अजित !” (पृ. २४५) । यही कारण है कि इस अभिनव कृति में जीव जगत् का कोई भी पक्ष अछूता नहीं रहा है। प्राकृतिक उपचार के परम्परागत प्रयोग, और आयुर्वेदीय चिकित्सा के सुगम सूत्रों (पृ. ४००, ४०५ ) से लेकर कलिकाल के कुटिल प्रभाव (पृ. ४११), वैज्ञानिक विकास जन्य विकृतियों के विद्वत्तापूर्ण विवेचन (पृ. ४१३), पद-प्रेमियों को प्रताड़ना (पृ.४३४), दल बहुलता पर प्रहार (पृ. १९७), समाजवाद की युक्ति संगत व्याख्या (पृ. ४६१), पाश्चात्य सभ्यता के ग्रहण से गिरते मानव मूल्य (पृ.१०२, १७३ ) और इससे विरत रहने की चेतावनी से युक्त इस ग्रन्थ में क्या कुछ नहीं है ? मंगलकाव्य है यह - 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' की अवधारणा से ओत-प्रोत । प्राणिमात्र के बीच वैषम्य के निवारण हेतु कवि, भकथन के मिस प्रभु से प्रार्थना करता है : 1 " प्रभु - पन पाने से पूर्व / एक की प्रशंसा / एक का प्रताड़न एक का उत्थान / एक का पतन / एक धनी, एक निर्धन एक गुणी, एक निर्गुण / एक सुन्दर, एक बन्दर / यह सब क्यों ? इस गुण-वैषम्य से / इसे पीड़ा होती है, प्रभो ! / देखा नहीं जाता और / इसी कारण बाध्य होकर / आँखें बन्द करनी पड़ती हैं । बड़ी कृपा होगी, / बड़ा उपकार होगा, / सब में साम्य हो, स्वामिन्!" (पृ. ३७२) यह है 'सर्वे सन्तु निरामयाः' की उदात्त भावना, जो सन्तों में न होगी तो फिर और कहाँ होगी ? आचार्यश्री पहले सन्त हैं और फिर कवि । और सन्त होते हैं उदारमना । 'सन्त हृदय नवनीत समाना' । वे करुणाकर कहलाते हैं । यह करुणा ही तो काव्य की उत्पत्ति का मूल है। 'मूकमाटी' के रूप में यही शुभाकांक्षिणी करुणा बिखरी है चारों ओर । कहाँ तक कहा जाए। इस विशाल आकर ग्रन्थ की विवेचना कुछेक पृष्ठों में सम्भव नहीं । वह भी मेरे जैसे अल्पमति से । कवि-कुलगुरू कालिदास की उक्ति को दुहराऊँ तो - "क्व सूर्यप्रभवो वंश: क्व चाल्पविषया मतिः, तितीर्षुर्दुस्तरं मोहादुडुपेनास्मि सागरम्।” आचार्यश्री गुरुपद की गरिमा से मण्डित हैं और " गुरुः साक्षात्परब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवे नमः ।” दिव्य चक्षु चाहिए उनके स्वरूप वर्णन के लिए । यह भी उन्हीं के कृपा बल से प्राप्त हो सकते हैं। अस्तु । 'मूकमाटी' के मिस बारम्बार उनका शुभ स्मरण कर सका, यह मेरा सौभाग्य है । I
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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