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________________ 88 :: मूकमाटी-मीमांसा क्षमता से सम्पन्न है । इसीलिए इसे इसके गुण-धर्मानुरूप 'मृत्तिकोपनिषद्' की संज्ञा से अभिहित किया जा सकता है । साहित्यिक दृष्टि से तो 'मूकमाटी' सारस्वत भाव सिन्धु के मध्य उभरे एक ऐसे मनोरम द्वीप के समान है जिस के चतुर्दिक् अक्षर-अक्षर की तरल तरंगें हैं, भव्य - भावनाओं का कल-कल नाद है और यदा-कदा शब्दों का पारिस्थितिक गर्जन-तर्जन भी । इस प्रकार चिन्तन की लहराती - गहराती श्वेत-श्याम जलधाराओं से समन्वित किन्तु स्वभावत: मर्यादित महासागर की मंजुल मेखला से आवेष्टित यह, जल धारा के बीच भी है और जल से ऊपर भी । पारावार के मध्य अपार शान्ति के प्रतीक द्वीप सदृश 'मूकमाटी' के स्रष्टा का विचार है : " शान्ति का श्वास लेता/ सार्थक जीवन ही / स्रष्टा है शाश्वत साहित्य का " और "सहित का भाव ही / साहित्य बाना है /... जिस के अवलोकन से/सुख का समुद्भव-सम्पादन हो/ सही साहित्य वही है” (पृ.१११) । महाकवि गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी यही कहा : “कीरति भनिति भूत भल सोई, सुरसरि सम सब कर हित होई ।" इस दृष्टि से 'मूकमाटी' भी वह 'ज्ञान गंगा' है जिसमें अवगाहन कर हर जिज्ञासु एक नवजीवनदायिनी शक्ति प्राप्त कर आन्तरिक सुख-शान्ति के पथ पर निरन्तर अग्रसर हो सकता है। अपने भाव पक्ष और कला पक्ष की दृष्टि से भी यह कृति अद्वितीय है । इसका प्रणेता समृद्ध शब्द शिल्पी है । शब्दों का जादूगर है वह, जिसके संकेत मात्र पर हर शब्द एक निश्चित यति-गति और लय-ताल पर थिरकता-सा प्रतीत होता है । उसने शब्द संसार में 'एकोऽहं बहुस्याम' को प्रतिफलित कर दिखाया है। एक-एक शब्द को चंचल शिशुवत् कभी इस करवट, कभी उस करवट लिटा-सुला कर खूब 'हलराया, दुलराया, मल्हाया' है- 'जसोदा हरिपालने झुलावै' की भाँति, जिससे हुई है नाद - सौन्दर्य की सृष्टि (पृ. ३०६), शब्द मैत्री का उदय, अर्थ परिवर्तन का चमत्कार (द्रष्टव्य-पृ.३८,५६,८७ तथा ९२,१२३, १४१ एवं अन्यत्र भी ) । छन्दशास्त्रीय दृष्टि से काव्य में जहाँ शब्द शक्तियों (अभिधा, लक्षणा, व्यंजना) की चारु चर्चा है (पृ. ११०), वहीं रस - विवेचन (पृ. १३० - १६०) एवं अलंकार निरूपण तथा ऋतु वर्णन के अतिरिक्त 'अरुण अरविन्द बन्धु' जैसी दृष्टकूट शब्दावली भी है । सन्त कवि की गहन अन्वेषिणी अथच सूक्ष्म दृष्टि का विस्तार मच्छर से लेकर 'स्टार वार' यानी सूक्ष्म से लेकर विराट् तक है । उपमा तो एक से एक अनूठी हैं, यथा "काठियावाड़ के युवा घोड़ों की पूँछ-सी / ऊपर की ओर उठी / मानातिरेक से तनी / जिनकी काली-काली मूँछें हैं" (पृ. ४२८) या ' ... करुणा... ./नमकीन आँसुओं का/स्वाद है वह" (पृ. १५५) आदि । सूक्तियों और कहावतों ने तो काव्य को अनुभवानुभूति के धरातल पर अपूर्व गरिमा प्रदान की है। “दयाविसुद्धो धम्मो ” (पृ. ८८) और “बायें हिरण / दायें जाय - / लंका जीत / राम घर आय" (पृ. २५) या "आधा भोजन कीजिए / दुगुणा पानी पीव ।/तिगुणा श्रम चउगुणी हँसी / वर्ष सवा सौ जीव" (पृ. १३३) जैसी जीवनोपयोगी सूक्तियाँ 'सर्वे भवन्तु सुखिन: ' का सन्देश देती-सी रचनाकार की लोक मंगलकारिणी प्रवृत्ति को परिपुष्ट करती हैं (द्रष्टव्य-पृ. १३५, ३९९) । 'दूध में छौंक लगाना' (पृ. ३५८) जैसी उक्ति का अभिनव प्रयोग कवि के कला कौशल को नए रूप में उद्घाटित करता है। " अतुकान्त होने पर भी प्रस्तुत काव्य-कृति किसी भी दृष्टि से कहीं भी उन्नीस नहीं ठहराई जा सकती किन्तु जैसे ही हमारी दृष्टि " ऐसी हँसती धवलिम हँसियाँ / मनहर हीरक मौलिक-मणियाँ " (पृ. २३६) तथा " नयी कला ले हरी लसी है/ नयी सम्पदा वरीयसी है” (पृ. २६४) और “सन्तों की, गुणवन्तों की / सौम्य - शान्त - छविवन्तों की/जय हो ! जय हो ! जय हो !" (पृ. ३१५), सर्वोपरि- "शरण, चरण हैं आपके, / तारण तरण जहाज, /भवदधि तट तक ले चलो / करुणाकर गुरुराज !” (पृ.३२५) जैसी चित्ताकर्षक पंक्तियों पर जा टिकती है तो मन बरबस कह उठता है कि काश ! यही रचना कहीं छन्दोबद्ध रूप में प्रकट हुई होती तो क्या कहना ! तब यह बहती गंगा से भी बढ़कर चन्द्रमौलि के जटाजूट में शोभित गंगा के समान अद्भुत आभा से मण्डित होती । फिर भी, गंगा किसी भी रूप में क्यों न हो, वह तरण तारिणी तो है ही, जन-मन मंगलकारिणी भी । हाँ, उसके निर्मल प्रवाह में चमचमाते रजकणों
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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