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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 85 फल प्रदान करती है एवं मातृत्व के रूप में वही शक्ति आनन्द वितरण के सेवापूर्ण विमल स्तर तक पहुँचती है। आचार्यश्री 'कुमारी' शब्द की व्याख्या इस प्रकार करते हैं : 'कु' यानी पृथिवी / 'मा' यानी लक्ष्मी / और / 'री' यानी देने वाली.. इससे यह भाव निकलता है कि / यह धरा सम्पदा -सम्पन्ना तब तक रहेगी/ जब तक यहाँ 'कुमारी' रहेगी ।" (पृ. २०४ ) 46 आचार्यश्री ने 'कुमारी' को लक्ष्मी के समतुल्य माना है। महर्षि गर्ग कहते हैं : " यद् गृहे रमते नारी लक्ष्मीस्तद् गृहवासिनी ।" लक्ष्मी विष्णु भगवान् की पत्नी तथा श्री - सम्पन्न हैं । वह राजकीय शक्ति, ऐश्वर्य, धन-सम्पदा और कल्याण का प्रतीक है, इसलिए यह आज भी आदर्श भारतीय नारी का गुण माना जाता है। 'सुता' शब्द आचार्यश्री की दृष्टि में : 66 'सुता' शब्द स्वयं सुना रहा है : / 'सु' यानी सुहावनी अच्छाइयाँ और / 'ता' प्रत्यय वह / भाव- -धर्म, सार के अर्थ में होता है / यानी, सुख-सुविधाओं का स्रोत सो - / 'सुता' कहलाती है ।" (पृ. २०५ ) वैदिक भारत में ब्रह्मवादिनी स्त्रियाँ वैदिक ऋचाओं की रचना करती थीं। धन की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी, विजयिनी दुर्गा एवं ज्ञान प्रदान करने वाली सरस्वती की तरह अदिति, उषा, इड़ा, इन्द्राणी आदि नारियाँ अनेक गूढ़ तत्त्वों की अधिष्ठात्री देवियाँ थीं। 'दुहिता' को आचार्यश्री ने दो हित या सबका हित सम्पादित करने वाली कर्तव्य पथ पर अग्रसर नारी के रूप में अभिव्यक्त किया है : "दो हित जिसमें निहित हों / वह 'दुहिता' कहलाती है अपना हित स्वयं ही कर लेती है, / पतित से पतित पति का जीवन भी हित सहित होता है, जिससे / वह दुहिता कहलाती है । उभय-कुल-मंगल- वर्धिनी, / उभय- लोक - सुख - सर्जिनी स्व-पर-हित सम्पादिका / कहीं रहकर किसी तरह भी हित का दोहन करती रहती / सो / दुहिता कहलाती है।" (पृ. २०५ - २०६ ) गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते ही नारी की कई भूमिकाएँ स्वतः ही प्रस्फुटित हो जाती हैं। वह मातृ पक्ष एवं पितृ पक्ष दोनों कुलों का मंगल विधान करने वाली, दोनों लोकों (इहलोक - परलोक) के सुखों की सर्जिनी बन जाती है । पति के लिए पावन प्रेम जहाँ उसे देवी बनाता है, वहीं सन्तान के लिए वात्सल्य उसे जगदम्बा के सिंहासन पर अभिषिक्त करता है। नारी का वास्तविक रूप माँ का है। आचार्यश्री समाज में पारिवारिक आदर्शों को प्रस्थापित करना चाहते हैं । आपने पारिवारिक स्नेह सम्बन्धों में मातृत्व को प्रमुखता दी है, क्योंकि यही नारी का सबसे गौरवपूर्ण और आकर्षक रूप है। आचार्यश्री के शब्दों में : "हमें समझना है / 'मातृ' शब्द का महत्त्व भी । / प्रमाण का अर्थ होता है ज्ञान प्रमेय यानी ज्ञेय / और / प्रमातृ को ज्ञाता कहते हैं सन्त । / जानने की शक्ति वह मातृ-तत्त्व के सिवा/ अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं होती ।
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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