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________________ 72 :: मूकमाटी-मीमांसा सिद्ध होती है। स्पष्ट है कि 'मूकमाटी' को महाकाव्य के परम्परागत सूत्रों के सहारे विवेचित नहीं किया जा सकता। परिमाण की दृष्टि से नहीं, उसके सन्देश की दृष्टि से, रचना के परिणाम की दृष्टि से और रचना में समाहित कवि के उदात्त चिन्तन की दृष्टि से इस पर विचार किया जाना चाहिए। चार सर्गों में समाहित माटी की करुण कर्मकथा का कथ्य ___रचनाकार ने माटी की महाकाव्यात्मकता को चार सर्गों में वर्गीकृत किया है जिन्हें क्रमश: 'संकर नहीं : वर्णलाभ'; 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं'; 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' और 'अग्नि की परीक्षा : चाँदीसी राख' जैसे नामों से सुशोभित किया गया है। प्रथम सर्ग में माटी का माँ सरिता से संवाद, कुम्भकार से माटी का संसर्ग, काँटे के माथे पर कुदाली की चोट, उसका कुम्भकार से प्रतिकार का भाव, माटी की करुण कथा से कुम्भकार का द्रवीभूत होना, खुरदुरी बोरी में माटी का भरा जाना, गदहे की पीठ पर लदना, रगड़ से घाव में मिट्टी का लेप, उपाश्रम परिसर में माटी का संस्कार, परिष्कार, वर्ण संकरी कंकर का संवाद, बाल्टी, रस्सी कुएँ का प्रसंग और मछली का प्रसंग समाहित है। द्वितीय सर्ग कुम्भकार की दशा, काँटे को उपदेश, शूल-फूल की चर्चा, साहित्य की व्याख्या, आस्था से संस्था तक की विचार यात्रा, माटी का गूंथना, नव रसों की परिभाषा, चाक पर मिट्टी के लोदे का चढ़ाव, घट निर्माण, उस पर की गई चित्रकारी आदि के वर्णन से भरा पड़ा है। तृतीय सर्ग में कवि माटी की विकास यात्रा के ब्याज से पुण्य कर्म के सम्पादन से उद्भूत श्रेयष्कारी उपलब्धियों को चित्रित करता है और पाप-पुण्य का विवेचन करता है। धरती के सर्वसह्य रूप, वेणु (बाँस) की कथा, चन्द्रमा की ईर्ष्या, सागर का कपट, तीन बदलियों की कथा, प्रभा और उसके पति प्रभाकर की कथा, जनता की आकांक्षाएँ और राजमण्डली से मोह भंग, कुम्भ-राजा संवाद, बादल-सूर्य-सागर-संवाद, वर्षा वर्णन और कुम्भकार की दशा आदि का वर्णन है। चतुर्थ सर्ग में अनेक कथाएँ समाहित हैं। कुम्भ का आँवे में पकाना, बबूल द्वारा लकड़ियों की अन्तर्वेदना का गान, कुम्भ का पकना, सेठ के घर आना, कलश रूप में घट स्थापना, आहारदान की प्रक्रिया, स्वर्ण कलश की ईर्ष्या, सेठ की रुग्ण दशा, स्वर्ण कलश का आतंकवाद और सन्त साधु का प्रसंग आदि की अवतारणा की गई है। इस प्रकार चार सर्गों और ४८८ पृष्ठों में विस्तीर्ण माटी की यह कथा विषय वस्तु और वर्णन शिल्प दोनों दृष्टियों से महाकाव्य के क्षेत्र में एक नवीन उद्भावना है। 'मूकमाटी' में प्रकृति अपने सम्पूर्ण परिवेश के साथ साकार हो उठी है । प्रकृति स्वयं शान्तिस्वरूपा है, अत: काव्य का मुख्य रस शान्त होना स्वाभाविक है । अन्य कवियों की तरह महाकाव्यकार की चेतना शृंगार में नहीं रमती, उसके भीतर करुणा का एक अजस्र झरना प्रवाहित होता रहता है । कवि कल्पनाएँ तो करता है पर उसकी कल्पनाएँ रोमानी नहीं हैं, वह स्वप्नद्रष्टा तो है पर स्वप्निल संसार का मायाजाल नहीं रचता; वह पलायनवादी नहीं, पावनवादी जीवनदृष्टि का पोषक है। यही कारण है कि कवि की दृष्टि रागी नहीं, वीतरागी बनी रहती है। कवि यथार्थवादी है, पर यथास्थितिवादी नहीं। यथार्थ के व्यामोह में वह न तो अपनी आस्थाओं से डिगता है, न आस्तिकता से विरत होता है। श्रद्धा और विश्वास उसके सम्बल हैं जिसकी पूँजी के सहारे वह अपनी काव्यमय विचार यात्रा तय करता है। अद्भुत शब्द-शिल्प का चमत्कारी कला-कौशल 'मूकमाटी' का कवि भावानुभूति के स्तर पर जितना प्रौढ़ है, उतनी ही सशक्त है उसकी अभिव्यक्ति ।
SR No.006154
Book TitleMukmati Mimansa Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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