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मूकमाटी-मीमांसा :: 55
“संयम की राह चलो/राही बनना ही तो/हीरा बनना है,/स्वयं राही शब्द ही विलोम-रूप से कह रहा है-/रा"ही"ही"रा/और/इतना कठोर बनना होगा कि/तन और मन को तप की आग में/तपा-तपा कर/जला-जला कर राख करना होगा/यातना घोर करना होगा/तभी कहीं चेतन-आत्मा खरा उतरेगा।/खरा शब्द भी स्वयं/विलोम-रूप से कह रहा है
राख बने बिना/खरा-दर्शन कहाँ ?/रा"ख"ख"रा।” (पृ. ५६-५७) एक-एक शब्द का गहन चिन्तन और विलोम का भी यहाँ सार्थक प्रयोग हुआ है। 'राही-हीरा' और 'राख-खरा' ये दोनों शब्द, दोनों ओर से एक दूसरे के अनुपूरक से बन गए हैं। इससे कवि के वाग्वैदग्ध्य का तो पता चलता ही है, साथ ही गहन अनुभूति का भी।
दूसरा अध्याय ‘शब्द सो बोध नहीं: बोध सो शोध नहीं' के अन्तर्गत शिल्पी ने घड़े के निर्माण हेतु माटी को छान-बीन कर छना निर्मल जल मिलाया है, जो मानव की साधना का दूसरा स्तर है :
“लो, अब शिल्पी/कुंकुम-सम मृदु माटी में/मात्रानुकूल मिलाता है छना निर्मल-जल ।/नूतन प्राण फूंक रहा है
माटी के जीवन में/करुणामय कण-कण में।" (पृ.८९) प्रेय और श्रेय, प्रकृति और पुरुष का सम्यक् समवाय ही मोक्ष है, कवि की पंक्तियों से यह भाव मुखरित हुआ है :
"स्वभाव से ही/प्रेम है हमारा/और/स्वभाव में ही/क्षेम है हमारा। पुरुष प्रकृति से/यदि दूर होगा/निश्चित ही वह/विकृति का पूर होगा पुरुष का प्रकृति में रमना ही/मोक्ष है, सार है। और
अन्यत्र रमना ही/भ्रमना है/मोह है, संसार है...!" (पृ. ९३) मानव मन सुखाकांक्षी है । वह दुःख में अधीर हो जाता है । फूल का वरण तो सभी करते हैं, किन्तु शूल का कोई भी नहीं। 'शिव' का उदाहरण देता हुआ कवि कहता है कि विश्व के कल्याण के लिए काम को जलाना होगा :
"शूलों की अर्चा होती है, इसलिए/फूलों की चर्चा होती है। फूल अर्चना की सामग्री अवश्य हैं/ईश के चरणों में समर्पित होते वह परन्तु/फूलों को छूते नहीं भगवान्/शूल-धारी होकर भी।
काम को जलाया है प्रभु ने।" (पृ. १०३) काव्य की एक-एक पंक्ति आध्यात्मिकता से सराबोर है। इतना गहन साहित्याध्यात्म तो नितान्त नूतन है। शिल्पी ने मन्त्र को बड़ा न मान कर मन की साधनावस्था को महान् माना है। उसका कथन है कि स्थिर मन ही महामन्त्र
“मन्त्र न ही अच्छा होता है/ना ही बुरा/अच्छा, बुरा तो अपना मन होता है/स्थिर मन ही वह/महामन्त्र होता है और/अस्थिर मन ही/पापतन्त्र स्वच्छन्द होता है।" (पृ. १०८-१०९)