________________
'मूकमाटी' : एक रूपक महाकाव्य
डॉ. नगेन्द्र आचार्य श्री विद्यासागर कृत 'मूकमाटी' एक रूपक महाकाव्य है । यहाँ प्रस्तुत रूपक में मिट्टी के आत्मनिर्माण की कथा का वर्णन है और अप्रस्तुत रूप में आत्मा की मुक्ति की साधना की व्यंजना है। इस प्रकार कवि ने अत्यन्त कौशल के साथ अध्यात्म तत्त्व और कवित्व का सुन्दर समन्वय किया है । दर्शन शास्त्र तथा काव्य शास्त्र दोनों में निष्णात कवि की अभिव्यंजना शैली प्रौढ़ एवं अर्थ गर्भित है । भाषा पुष्ट और अलंकृत है। मेरा साधुवाद ।
आध्यात्मिक आधार वाला पहला महाकाव्य : 'मूकमाटी'
प्रो. (डॉ.) विजयेन्द्र स्नातक खड़ी बोली और मुक्त छन्द में आध्यात्मिक आधार देकर लिखा गया 'मूकमाटी' पहला महाकाव्य है । धरती पर यद्यपि कवियों ने लिखा है और कुछ रचनाओं में माटी का उल्लेख भी आया है, पर इस महाकाव्य में माटी को आत्मा का प्रतीक मानकर वर्णन हुआ है । इसलिए इसका अध्ययन साहित्यिक कृति के रूप में नहीं बल्कि आध्यात्मिक और दार्शनिक महाकाव्य के रूप में करना चाहिए । काव्य की भाषा यद्यपि बहुत सरल है किन्तु अर्थ बहुत गूढ़ और मर्मस्पर्शी है। जैन दर्शन का अध्ययन किए बिना इसके साथ न्याय नहीं किया जा सकता। यह एक अनूठा ग्रन्थ है।
अब तक धरती पर ही कविताएँ लिखी गईं । मिट्टी पर किसी का ध्यान ही नहीं गया । दिगम्बर जैनाचार्य विद्यासागरजी ने मिट्टी पर यह महाकाव्य लिखकर साहित्य के क्षेत्र में महान् योगदान दिया है।
बौद्ध और जैन दर्शन को नास्तिक दर्शन कहा जाता है, परन्तु यह धारणा बिलकुल मिथ्या है । जैन दर्शन अन्य सभी धर्मों से अधिक आस्तिक है । केवल जैन ही सबसे अधिक आस्तिकता से पूजा-पाठ तथा अन्य धार्मिक कार्य करते हैं। जैन धर्म कभी भी पड़ोसी की तरफ ईर्ष्या से नहीं देखता, इसीलिए यह आज तक अडिग खड़ा है।
['नवभारत टाइम्स' (दैनिक) नई दिल्ली, २१ जनवरी, १९८९ एवं 'दिगम्बर जैन महासमिति पत्रिका', (पाक्षिक) जयपुर, राजस्थान, १ फरवरी, १९८९]
पृष्ठ १४-१५ अब मौन का मंगरोताहै
'माटी की ओर से- - र यह मार्मिक उयन टै,मा