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________________ जो श्री वीतराग परमात्मा की मूर्ति को मानने-पूजने आदि से इन्कार करने के लिए ऐसे कुतर्क उठाते है कि जब मूर्ति पूजनीय है तो उसको बनाने वाले कारीगर विशेष पूजनीय क्यों नहीं?' उनसे पूछना चाहिए कि तुम जिन शास्त्रों को पूजनीय मानते हो, उनकी नकल करने वाले प्रतिलिपिकार अथवा मुद्रण करने वालों को शास्त्रों से अधिक पूजनीय मानते हो क्या? साधु-महात्माओं के वस्त्रादि उपकरणों को तुम बहुत आदरणीय मानते हो परन्तु उनको बनाने वाले बुनकर तथा कारीगर आदि को इनसे भी बढ़कर आदरणीय मानते हो क्या? यदि नहीं तो श्री जिनमूर्ति के सम्बन्ध में ही ऐसे कुतर्क क्यों? श्री जिनमूर्ति की पूजनीयता श्री जिनेश्वरदेव के गुणों के फलस्वरूप ही है, इस बात को समझने वाले बुनकर तथा कारीगर आदि को इनसे भी बढ़कर आदरणीय मानते हो क्या? यदि नहीं तो श्री जिनमूर्ति के सम्बन्ध में ही ऐसे कुतर्क क्यों ? श्री जिनमूर्ति की पूजनीयता श्री जिनेश्वरदेव के गुणों के फलस्वरूप ही है, इस बात को समझने वाले व्यक्ति तो कभी ऐसे बुरे विचारों में नहीं फँसेंगे। प्रश्न 27 - प्रतिमा निर्जीव है तो उसकी पूजा क्यों होती है? उत्तर - जो द्रव्य पूजनीय है, तो वह सजीव हो या अजीव, वह पूजनीय है ही। दक्षिणावर्त शंख, कामकुम्भ, चिन्तामणि रत्न, चित्राबेल आदि पदार्थ अजीव तथा जड़ होने पर भी विश्व में पूजे जाते हैं और उनके पूजने वालों को मनवांछित फल की प्राप्ति भी होती है। जैसे ये निर्जीव वस्तुएँ अपने स्वभाव से पूजक का हित करती है, वैसे ही श्री जिन प्रतिमा भी पूजक आत्माओं को स्वभाव से ही शुभ फल देती है। प्रश्न 28 - जिन प्रतिमा तो साधारण कीमत में बिकती है, तो फिर उसे भगवान कैसे माना जाय? उत्तर - भगवान की वाणीस्वरूप श्री आचारांग, श्री भगवती आदि पुस्तके थोड़ी कीमत में बिकती हैं, तो फिर उन्हें भी पूजनीय कैसे माना जा सकता है ? पुस्तकों द्वारा ज्ञान का प्रचार होता है अतः वे पूजनीय हैं, प्रतिमा द्वारा भव्यात्माओं को परमात्मा के स्वरूप का ज्ञान होता है अतः वह इससे भी अधिक पूजनीय है। शास्त्र जो कि कागज पर स्याही से लिखे हुए हैं, उनको भी स्वयं गणधर महर्षियों ने 'भगवान' कहकर वन्दन-नमस्कार किया है तो प्रतिमा वन्दन-नमस्कार योग्य हो, इसमें शंका ही क्या है? शास्त्रों में कहा है कि - 'नमो बंभीलिदिए' ब्राह्मीलिपि को नमस्कार हो! 'आयरस्सणं भगवओ' भगवान श्री आचारांग' इत्यादि सुलभ और सस्ती वस्तुएँ भी कई बार बड़े व्यक्तियों के स्वीकार करने पर दुर्लभ तथा कीमती बन जाती है। ठीक वैसे ही अल्प मूल्य में मिलने वाली प्रतिमाएँ भी अंजनशलाका तथा प्रतिष्ठा आदि शुभ क्रियाओं के द्वारा अमूल्य एवं परम पूजनीय बनती हैं। राज्याभिषेक होने पर जैसे साधारण -92
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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