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भी प्रकार की हरकत नहीं है। ___'पत्थर की गाय दूध देती ही नहीं'- ऐसा कहना भी गलत है। गाय के आँचल तथा उसकी दोहन क्रिया से अनभिज्ञ व्यक्ति को इसका ज्ञान देने के लिये भी गाय की आवश्यकता होती है और साक्षात् गाय के अभाव में उसकी मूर्ति द्वारा दोहने की उस क्रिया का ज्ञान दिया जा सकता है। इस ज्ञान के अभाव में यदि प्रत्यक्ष रूप में गाय मिल भी जाय तो भी उससे दूध प्राप्त करने की आशा व्यर्थ है। इस कारण एक अपेक्षा से गाय की मूर्ति ही दूध देने वाली सिद्ध हुई, यह भी स्वीकार करना ही पड़ेगा।
इसी तरह भगवान के अभाव में भगवान की भक्ति और उनके ध्यान के ज्ञान के लिए भगवान की मूर्ति आवश्यक है। मूर्ति के अभाव में भक्ति एवं ध्यान करने का वास्तविक अनुष्ठान तथा विधि जानना सम्भव नहीं. ध्यान तथा भक्ति बिना मोक्षप्राप्ति की इच्छा, वथ्या ही रहती है। इस तरह पत्थर की गाय जैसे दोहने की क्रिया सिखलाती है, वैसे ही पत्थर की मूर्ति भक्ति-ध्यानादि करना सिखाती है और उसके अनुष्ठान को जीवन में क्रियाशील बनाती
प्रश्न 23 - परमात्मा के नाम मात्र से ही यदि उनके स्वरूप का योध हो जाता हो तथा उससे अन्त:करण की शद्धि होती हो तो फिर उनकी प्रतिमा को पूजने का आग्रह किसलिए?
उत्तर - प्रतिमा के दर्शन से जैसी आत्मशद्धि होती है, वैसी नाममात्र से कदापि नहीं हो सकती। नाम की अपेक्षा आकार में अधिक विशेषताएँ हैं। जैसा आकार देखने में आता है, वैसा ही आकार सम्बन्धी धर्म का चिन्तन मन में होता है।
सम्पूर्ण शुभ अवयवों की प्रतिमा देखकर, उसी प्रकार का भाव उत्पन्न होता है। कामशास्त्रानुसार स्त्री-पुरुषों के विषयसेवन सम्बन्धी आसन आदि को देखकर देखने वाले कामी व्यक्ति को, तत्काल विकार उत्पन्न होता है। योगासनों की आकृतियों को देखने से योगी पुरुषों के योगाभ्यास में शीघ्र वृद्धि होती है।
भूगोल के अभ्यासी को नक्शा आदि देखने से वस्तुओं का ज्ञान आसानी से होता है। मकानों के प्लान देखने से उसके जानकार को उन वस्तुओं का तुरन्त ध्यान आता है; केवल नाम से वह सारा ख्याल नहीं आ सकता। इसी प्रकार परमात्मा के नाम की अपेक्षा परमात्मा के आकार वाली मूर्ति से परमात्मा के स्वरूप का अधिक स्पष्ट बोध होता है; तथा परमात्मा का ध्यान करने के लिए आसानी पैदा हो जाती है।
वन्दन-पूजन एवं आदर-सत्कार जिस ढंग से मूर्ति का हो सकता है, उस ढंग से नाम का नहीं हो सकता। मूर्ति की भक्तिमें तीनों योग तथा अन्य सभी सामग्रियों की विशेषता ग्रहण की जा सकती है, जबकि नाम-कीर्तनादि में वह सब नहीं हो सकता।
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