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होती है तथा सन्मार्ग पर चलने का बल प्राप्त होता है। इसी तरह प्रतिमा की भी वन्दननमस्कार - पूजनादि द्वारा भक्ति करने से भगवान पर प्रेम बढ़ता है, श्रद्धा सतेज होती है तथा गुणप्राप्ति की तरफ आगे बढ़ने के लिए आत्मा में उत्साह आता है। गुणप्राप्ति के उत्साह से शुभध्यान की वृद्धि होती है, शुभध्यान की वृद्धि से कर्म-रज का नाश होता है और ऐसा होने पर मोक्षमार्ग अत्यन्त सुगम हो जाता है।
प्रश्न 22 - पत्थर की गाय को दुहने से जैसे दूध प्राप्त नहीं होता है, वैसे पत्थर की मूर्ति पूजने से भी क्या कार्य सिद्ध हो सकता है?
उत्तर- पहली बात तो यह है कि यहाँ गाय का दृष्टान्त देना अनुपयुक्त है। गाय के पास से दूध लेने का होता है, पर मूर्ति के पास से कुछ लेने का नहीं होता । गाय जैसे दूध देती है, वैसे मूर्ति कुछ नहीं देती है। पूजक स्वयं अपनी आत्मा में छिपे हुए वीतरागतादि गुणों को मूर्ति के आलम्बन से प्रकट करता है।
दूसरी बात यह है कि जिस प्रकार पत्थर की गाय दूध नहीं देती वैसी सच्ची गाय भी, हे गाय ! तू दूध दे, ऐसा कहने मात्र से दूध नहीं देती है। तो फिर साक्षात् परमात्मा के नाम या जाप से भी कार्यसिद्धि नहीं होनी चाहिए और परमात्मा का नाम भी नहीं लेना चाहिए। परन्तु जिस शुभ उद्देश्य से ईश्वर का नामस्मरण किया जाता है, उसी शुभ उद्देश्य से परमात्मा की मूर्ति की उपासना भी कर्तव्य बन जाती है। परमात्मा का नाम लेने से जैसे अन्तःकरण की शुद्धि होती है, वैसे ही परमात्म- - मूर्ति के दर्शनादि से भी अन्तःकरण की शुद्धि होती ही है ।
इसी तरह कई लोग कहते हैं कि 'जिस प्रकार सिंह की मूर्ति आकर मारती नहीं है, वैसे ही भगवान की मूर्ति भी आकर तारती नहीं, क्योंकि, 'सिंह! सिंह !' ऐसा नाम लेते ही क्या सिंह आकर मारता है ? नहीं। तो फिर भगवान का नाम लेना भी निरर्थक ही ठहरेगा। सिंह की मूर्ति नहीं मारती, इसका कारण यह है कि मारने में सिंह को स्वयं को प्रयत्न करना पड़ता है, मरने वाले को नहीं; जबकि भगवान की मूर्ति द्वारा तिरने में मूर्ति को कोई प्रयल करना नहीं पड़ता है, किन्तु तरने वाले को करना पड़ता है ।
मुक्ति की प्राप्ति हेतु व्रत, नियम, तपस्या, संयम आदि की आराधना व्यक्ति को करनी पड़ती है, परमात्मा को नहीं। परमात्मा के प्रयत्न से ही जो तिरने का होता तो परमात्मा तो अनेक शुभ क्रिया कर गये हैं, फिर भी उनसे अन्य क्यों नहीं तिर गये ? परन्तु वैसा होता नहीं है।
एक के खाने से जैसे दूसरे की भूख नहीं मिटती, वैसे भगवान के प्रयत्न मात्र से भक्तजनों की मुक्ति नहीं हो जाती। उनकी मुक्ति के लिए वे स्वयं ही प्रयत्न करें, तभी सिद्धि होती है। फिर भी भगवान की मूर्ति के आलम्बन से ही जीव को तपनियमादि करने का उल्लास होता है और उसी आधार पर 'भगवान की मूर्ति तारती है', ऐसा कहने में किसी
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