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________________ वास्तविक रीति से देखने पर रुपये तो चाँदी के टुकड़े हैं व नोट, हुंडी आदि कागज और स्याही स्वरूप हैं, परन्तु दोनों से काम एक समान निकलता है और इसीलिये दोनों को रुपये ही कहा जाता है, वैसे ही परमात्मा की मूर्ति भी परमात्मा का बोध कराने वाली होने से उसे भी परमात्मा की उपमा दी जा सकती है। प्रश्न 16 आत्मा की उन्नति के लिए पंचेन्द्रिय साधु का आलम्बन स्वीकार करना अच्छा है या एकेन्द्रिय पाषाण की मूर्ति का? उत्तर - पहली बात तो यह है कि मूर्ति अचेतन होने से एकेन्द्रिय नहीं है। साधु का आलम्बन साधु के शरीर के कारण नहीं, किन्तु उस शरीर को आश्रय देकर रहने वाले साधु के उत्तम सत्ताईस गुणों का है। जो ऐसा न हो तो शरीर तो अचेतन है। उसके आलम्बन से क्या लाभ होने का है ? मूर्ति पत्थर की होते हुए भी उसकी पूजा करते समय पाषाण का आलम्बन नहीं लिया जाता, पर जिसकी वह मूर्ति है, उस परमात्मा का तथा उस परमात्मा में रहने वाले अनन्तगुणों का ही आलम्बन लिया जाता है । इस दृष्टि से साधु के आलम्बन से भी परमात्मा की मूर्ति का आलम्बन चढ़ जाता है, इससे श्री जिनाज्ञानुसार उसको स्वीकार करने वाला, विशेष आत्मकल्याण कर सकता है। प्रश्न 17 पाषाण की मूर्ति में प्रभु के गुणों का आरोपण किस प्रकार - होता है? उत्तर- जिस प्रकार सण आदि हल्की वस्तुओं को स्वच्छ कर उससे सफेद कागज बनाते हैं और उन कागजों पर प्रभु की वाणी रूप शास्त्र लिखे जाते हैं, तब तमाम धर्मों के लोग उन शास्त्रों को भगवान की तरह पूजनीय मानते हैं । उसी तरह खान के पत्थर से मूर्ति बनती है और उस मूर्ति में गुरूजन सूरिमंत्र के जाप द्वारा प्रभु के गुणों का आरोपण करते हैं, तब वह मूर्ति भी प्रभु के समान पूजनीय बन जाती है। किसी गृहस्थ को दीक्षा देते समय गुरु उसे दीक्षा का मंत्र ( करेमि भंते सूत्र ) सुनाते हैं और शीघ्र ही लोग उसे साधु मानकर वन्दना करते हैं। यद्यपि उस समय उस नवदीक्षित साधु में साधु के सत्ताईस गुण प्रकट हो गये हों, ऐसा कोई नियम नहीं है; फिर भी उन गुणों का उसमें आरोपण कर उसकी वन्दना होती है। वैसे ही मूर्ति भी गुणारोपण के बाद प्रभु समान वन्दनीय बनती है, जिससे लोग उसकी वन्दना - पूजा करते हैं तथा उसको नमस्कारादि करते हैं, यह सर्वथा उचित है। प्रश्न 18 क्या सदाकाल प्रभुमूर्ति को मानते ही रहना चाहिए? उत्तर - हाँ ! जब तक आत्मा प्रमादी और विस्मरणशील है तब तक उसे प्रभुगुणों के स्मरण हेतु प्रभुमूर्ति को मानना ही चाहिए। ज्ञानाभ्यास में विस्मृति के भय से जिन्हें अचेतन पुस्तकों का सहारा लेना पड़ता है, 85 -
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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