SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यग्दृष्टि आत्मा के लिये सम्यक्श्रुत बन जाते हैं। यह प्रभाव उन मिथ्यादृष्टि के शास्त्रों का नहीं, पर सम्यग्दृष्टि के विवेकशील हृदय का है। निरपेक्ष वाणी मिथ्या होते हुए भी उसे सापेक्ष रूप से विचार करने वाला उसमें से सम्यक् विचारों को ही ग्रहण करता है। श्री नंदीसूत्र में अक्षर को श्रुतज्ञान कहा है जिससे कुरान आदि में अक्षर रूप जो ज्ञान है वह अवश्य वन्दनीय है परन्तु उसका भावार्थ वन्दनीय नहीं है। कई जिनवाणी को भावभुत कहते हैं तथा अन्य धर्मों के शास्त्रों को द्रव्यश्रुत कहते हैं, पर यह गलत है। श्री नदीसूत्र में श्री जिनवाणी को द्रव्यश्रुत तथा उसके भावार्थ को भावश्रुत कहा है। श्री गणधर भगवन्तों ने 'नमो सुअदेययाए' कहकर, श्री जिनवाणी रूप द्रव्यश्रुत को वन्दन करने का पाठ श्री भगवती सूत्र में है तथा उसी सूत्र में 'नमो भिलियिए' कह कर ब्राह्मी लिपि को नमस्कार किया है। श्री जिनवाणी भाषावर्गणा के पुद्गल होने से द्रव्य है तथा ब्राह्मी लिपि भी अक्षर रूप होने से द्रव्य है। इसलिये शास्त्रों में कहे हुए अक्षर द्रव्यश्रुत हैं और वे भी वन्दनीय हैं, तथा मिथ्याशास्त्रों में रहे हुए अक्षर भी द्रव्यश्रुत रूप में वन्दनीय हैं। मिथ्यादृष्टि से ग्रहण किया हुआ उनका भावार्थ मिथ्या होने से वन्दनीय नहीं है पर सम्यग्दृष्टि से ग्रहण किया हुआ, उनका भावार्थ सम्यग् होने से वन्दनीय है। ___ प्रश्न 13 - प्रभु के नाम को तो स्वीकार कर लें, परन्तु उनकी आकृति को नहीं माने तो क्या ऐसा चल सकता है? उत्तर - अपने इष्टदेव, गुरु के नाम को मानकर जो उस नाम वाली आकृति को नहीं मानते हैं, वे एक दृष्टि से अपने देव, गुरु का अनादर कर घोर पाप करते हैं। जब दो अक्षर के नाममात्र से देव, गुरु के स्वरूप का बोध होने से कल्याण हो तो उसी के समान आकारवाली प्रतिमा से दुगुना लाभ क्यों नहीं होगा? समझना तो यह चाहिए कि अकेली आत्मा अरूपी, अविनाशी तथा निरंजन होने से उसका नाम, निशान देह के आश्रित ही होता. है। जिसका नाम है, उसकी आकृति भी होनी ही चाहिए। जिसकी आकृति नहीं होती, ऐसी निराकार वस्तु का नाम भी नहीं होता है। शास्त्रों में अरूपी आकाश का भी आकार माना गया है। इससे स्पष्ट होता है कि आकारहीन वस्तु कोई वस्तु नहीं है। नाम एवं आकृति द्वारा गुण का बोध होता है। नाम के साथ आकृति लगी ही होती है। इससे जहाँ तक नाम मानने की आवश्यकता स्वीकृत है, वहाँ तक आकृति मानने की आवश्यकता का भी स्वीकार हो जाता है। आकृति मानने की आवश्यकता तभी छूट सकती है जब नाम मानने की आवश्यकता भी छूट गई हो। 'नाम गुण का होता है, पर आकार का नहीं', ऐसा कहने वाले को सोचना चाहिए 83
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy