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________________ अंजनशलाका और प्रतिष्ठा हो जाने के बाद उसमें अरिहन्त के समान पूजनीयता उत्पन्न हो जाती है। ___'मर्ति स्तुति को सनती है या नहीं?' यह प्रश्न ही अयोग्य है, क्योंकि पत्थर रूप मूर्ति के गुणगान करने में नहीं आते हैं। जिसकी वह मूर्ति है, उस देव की स्तुति तथा प्रार्थना की जाती है। वह देव ज्ञानी होने के नाते सेवक की स्तुति आदि को पूरी तरह जान सकते हैं। अतः मूर्ति के सामने स्तुति करना भी उचित है। प्रश्न 11 - श्री जिनप्रतिमा को यदि कोई अन्य धर्मावलम्बी अपने मन्दिर में स्थापित करे तो वह वन्दनीय गिनी जाएगी या नहीं? उत्तर - अन्य मत वालों द्वारा ग्रहण की हुई तथा उनके द्वारा देवस्वरूप में स्वीकार की गई श्री जिनमूर्ति को श्रावक नहीं नमेगा क्योंकि वे लोग उस मूर्ति को अपने इष्टदेव के रूप में मान कर अपने मन की विधि के अनुसार उसकी पूजा करेंगे तथा वह विधि जैनों को मान्य नहीं होगी; अतः जहाँ विधिवत् पूजा नहीं होती हो ऐसी अन्यमतावलम्बियों द्वारा ग्रहण की हुई जिन-प्रतिमाओं को मानने, पूजने का शास्रों में निषेध किया है। शास्त्र में ऐसा नियम है कि - 'सम्यग्दृष्टि से ग्रहण किया हुआ मिथ्याश्रुत भी सम्यक्श्रुत है, तथा मिथ्यादृष्टि से ग्रहण किया हुआ सम्यक्श्रुत भी मिथ्याश्रुत है।' वही नियम श्री जिनमूर्ति को लागू पड़ता है। अन्य धर्मावलम्बियों द्वारा ग्रहण की हुई प्रतिमाओं में से प्रतिमापन चला नहीं जाता फिर भी अविधिपूजन के कारण तथा अन्य जीवों के मिथ्यात्व की वृद्धि में कारण-भूत होने से सम्यग्दृष्टि आत्माओं ने उन प्रतिमाओं के पूजन को त्याज्य बताया है। ___ यहाँ किसी के मन में प्रश्न उठता है कि 'जिनमूर्ति की भाँति साधु यदि मिथ्यात्वी के मठ में उतरे तो वह पूजनीय है या नहीं?' तो उसका उत्तर यह है कि अन्यतीर्थी के मकान में उतरने मात्र से उसकी साधुता चली नहीं जाती। जब तक अपना लिंग और क्रिया छोड़कर अन्य लिंगी अथवा अन्य लिंग की क्रिया करने वाला नहीं हो जाता, तब तक वह साधु, साधु की तरह पूजने योग्य है। श्री जिनप्रतिमाओं के लिये ऐसी बात नहीं है क्योंकि अन्य मत वालों द्वारा ग्रहण की हुई जिनप्रतिमा के पूजन की विधि, वे श्री जिनमत के अनुसार नहीं करते पर अपने शास्त्रानुसार करते हैं, ऐसी विपरीत विधि को मान्यता देने से प्रत्यक्ष रूप से मिथ्यात्व की वृद्धि होती है। प्रश्न 12 - यदि सम्यग्दृष्टि के हाथ में रहने वाले मिच्यादृष्टि के शाखा सम्यक्श्रुत बन जाते हों तो वेद, कुरान, बाइबल आदि सभी धर्मग्रन्य क्या वन्दनीय नहीं बन जायेंगे? उत्तर - सम्यग्दृष्टि के हाथ में रहनेवाले नहीं, पर हृदय में रहते हुए शास्त्र, 82
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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