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________________ मूर्ति के आगे की गई स्तुति, क्या मूर्ति सुन सकती है? उत्तर - लोगों को पथभ्रष्ट करने के लिए इस प्रकार के प्रश्न मूर्तिपूजा के विरोधीवर्ग की ओर से खड़े करने में आते है, परन्तु उसके पीछे घोर अज्ञान एवं कुटिलता छिपी हुई है। मूर्तिपूजक लोग यदि पत्थर को ही पूजते होते तो स्तुति भी वे पत्थर की ही करते कि 'हे पत्थर! हे अमूल्य पत्थर! तू अनमोल तथा उपयोगी है। तेरी शोभा अपार है। तू विशेष खान में से निकला है। तुझे खान में से निकालने वाले कारीगर बहुत कुशल हैं। हम तेरी स्तुति करते हैं, पर इस प्रकार पत्थर के गुणगान कोई नहीं करता, परन्तु सभी लोग पत्थर की मूर्ति में आरोपिन श्री वीतरागदेव की स्तुति करते ही नजर आते हैं। हे निरंजन! निराकार! निर्मोह! निराकांक्ष! अजर! अमर! अकलंक! सिद्धस्वरूपी! सर्वज्ञ! वीतराग! आदि गुणों द्वारा गुणवान परमात्मा की ही स्तुति करते हैं। क्या पत्थर में ये गुण हैं कि जो पत्थर की उपासना का झूठा दोष लगाकर लोगों को गलत दिशा में ले जाने का प्रयास किया जा रहा है? जब पूजक व्यक्ति मूर्ति में पूजा योग्य गुणों को आरोपित करता है, तब उसे मूर्ति साक्षात् वीतराग ही प्रतिभासित होती है। वह जिस भाव से मूर्ति को देखता है उसे वह वैसा ही फल देती है। साक्षात् भगवान तरण-तारण हैं, फिर भी उनकी आशातना करने वालों को बुरा फल मिलता है। उसी भाँति मूर्ति भी तारक है, उसकी आशातना करने वाले उसके बुरे फल भोगते हैं। शंका - मूर्ति को भगवान कैसे माना जाय? क्या रूखी-सूखी रोटी को मिठाई मान लेने से यह मिठाई बन जाती है? समाधान - सन्तोषी तथा शुभ परिणामी जीवों को तो जो सन्तोष मिठाई से प्राप्त हो सकता है, उतना ही सन्तोष रूखी रोटी से भी प्राप्त हो सकता है। दूसरी ओर असन्तोषी एवं अशुभपरिणामी जीवों को तो मिठाई भी अधिक लाभ नहीं पहुँचाती है तो रूखी रोटी से तो उनका क्या काम बनने वाला है? दृष्टान्त का अभिप्राय यह है कि शुभपरिणामी जीव मूर्ति से भी साक्षात् भगवान के दर्शन जैसा ही लाभ उठा सकते हैं, जबकि दुष्ट परिणामी जीव साक्षात् परमात्मा के दर्शन से भी अशुभ कर्म बाँधते हैं तथा अमृत को भी विष बना देते दो घड़ी पूर्व के सामान्य साधु को आचार्यपद प्रदान करने के साथ ही अन्य साधु तथा श्रावक छत्तीस गुणों का आरोपण कर उनको वन्दन करते हैं तथा किसी भी व्यक्ति के पूर्व में गृहस्थ होते हुए भी दीक्षा लेते ही उसमें साधु के सत्ताईस गुणों का आरोपण कर उनको वन्दन-नमस्कार किया जाता है। जिस प्रकार आरोपित अवस्था में कोई आचार्य तथा सायु, क्रमशः आचार्य तथा साधु के रूप में पूजनीय बन जाता है, उसी प्रकार मूर्ति में भी
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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