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का ढोंग रचना तथा उचित कार्य का अनादर करना योग्य नहीं है। बिना योग्यता मिथ्याभिमान रखने से किसी भी स्वार्थ की सिद्धि नहीं हो सकती। इन्द्रियों तथा मन पर काबू पाये बिना निरालम्बन ध्यान की बातें करने वालों के लिए शास्त्रकार कहते हैं .
"जो व्यक्ति इन्द्रियों को वश में किये बिना ही शुभ ध्यान रखने की इच्छा करता है, वह मूर्ख जलती हुई आग के अभाव में रसोई पकाना चाहता है, जहाज को छोडकर अगाध समुद्र को दोनों हाथों से तैरकर पार करने की तथा बीज बोये बिना ही खेत में अनाज उत्पन्न करने की इच्छा करता है।"
प्रश्न 9 - मूर्ति तो एकेन्द्रिय पाषाण की होने से प्रथम गुणस्थानक पर है। उसका चौथे-पाँचवें गुणस्थानक वाले श्रायटक तथा छठे-सातवें गुणस्थानक वाले साधु किस प्रकार यंदन-पूजन कर सकते हैं?
उत्तर - प्रथम तो मूर्ति को एकेन्द्रिय कहने वाला व्यक्ति जैन शास्त्रों से अनभिज्ञ ही हैं। खान में से खोदकर अलग निकाला हुआ पत्थर शस्त्रादि लगने से सचित्त नहीं रहता, ऐसा शास्त्रकार कहते हैं। अचेतन वस्तु में गुणस्थानक नहीं होता है। अब यदि गुणस्थानक रहित वस्तु को मानने से इन्कार करोगे, तो महादोष के भागी बनोगे क्योंकि सिद्ध भगवान सर्वथा गुणस्थानक रहित हैं, फिर भी अरिहन्तदेव के पश्चात् सबसे प्रथम स्थान पर पूजने योग्य हैं। गुणस्थानक संसारी जीवों के लिए हैं, सिद्धों के लिए नहीं।
दूसरी बात यह है कि जिस प्रकार मूर्ति को गुणस्थानक नहीं है, उसी प्रकार कागज आदि से बनी पुस्तकों का भी अपना कोई गुणस्थानक नहीं है। फिर भी प्रत्येक धर्म के अनुयायी अपने ग्रन्थों का बहुत आदर करते हैं, ऊँचे आसन पर रखते हैं तथा मस्तक पर चढ़ाते हैं। उसको सभी प्रकार की आशातनाएँ वर्जित हैं। उनको थूक के छीटें या पैर से ठोकर लगाना भी महादोष रूप गिना जाता है। विश्व में ऐसा कोई धर्म नहीं है जो अपने इष्टदेव की वाणी रूप शास्त्र को मस्तक पर नहीं चढ़ाता हो तथा उसका खूब आदर-सम्मान नहीं करता
हो।
श्री जैन सिद्धान्त के श्री भगवती सूत्र में भी 'नमो बंभीए लिवीए' कह कर श्री गणधर भगवन्तों ने अक्षर रूपी ब्राह्मी लिपि को नमस्कार किया है तो इसमें कौनसा गुणस्थानक था? मृतक साधु का शरीर भी अचेतन होने से गुणस्थानक रहित है, फिर भी लोग दूसरे काम छोड़कर उनके दर्शन के लिये दौड़कर जाते हैं, तथा उस मृत देह को बड़ी धूमधाम से चन्दन की चिता में जलाते हैं। इस कार्य को गुरु-भक्ति का कार्य कहेंगे या नहीं? यदि इसे गुरु-भक्ति कह सकते हैं, तो प्रतिमा के वन्दन पूजन आदि को जिनभक्ति का कार्य क्यों नहीं कह सकते हैं? प्रश्न 10 - मूर्ति तो पत्थर की है, उसकी पूजा से क्या फल मिलेगा?
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