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इसके अतिरिक्त दूसरी तरह से भी द्रव्यनिक्षेप और उसकी पूजनीयता की सिद्धि होती है। श्री ऋषभदेव स्वामी के समय में तथा वर्तमान काल में आवश्यक क्रिया करते समय साधुश्रावक तमाम चतुर्विशति स्तव (यानी लोगस्स सूत्र) का पाठ बोलते हैं।
श्री ऋषभदेव स्वामी के समय में, शेष तेईस तीर्थंकरों के जीव, चौरासी लाख जीवयोनि में भटकते थे इसलिये उनको उस समय किया हुआ नमस्कार भावनिक्षेप से किया हुआ नहीं गिना जा सकता किन्तु द्रव्यनिक्षेप से ही किया हुआ गिना जाता है। वर्तमान काल में तो इनमें से एक भी भावनिक्षेप में नहीं है क्योंकि सभी सिद्धगति में गये होने से भावनिक्षेप में अरिहन्त रूप में नहीं परन्तु सिद्ध रूप में ही बिराजमान हैं। जो एक भावनिक्षेप को मानकर दूसरे नाम, स्थापना व द्रव्यनिक्षेप को मानने का निषेध होता तो 'लोगस्स' द्वारा किसको नमस्कार किया जाय?
लोगस्स में प्रकट रूप से 'अरिहंते कित्तइस्सं' और 'चउदीसंपिकेयली' कहकर चौबीसों तीर्थंकरों को याद किया है। तीर्थंकरों का यह स्मरण भावनिक्षेप से नहीं. परन्तु नाम तथा द्रव्यनिक्षेप से ही मानने का है। जो इन दो निक्षेपों को मानने के लिए तैयार नहीं, उनके मत से 'लोगस्स' को मानने का रहता ही नहीं तथा 'लोगस्स' नहीं मानने से आज्ञाभंग का महादोष लगे बिना भी नहीं रहता।
पुनः साधु-साध्वी के प्रतिक्रमणसूत्र में भी कहा है कि श्री ऋषभदेवस्वामी से श्री महावीरस्वामी तक चौबीसों तीर्थंकरों को नमस्कार हो।
इसमें भी इन नामों के तीर्थंकर भावनिक्षेप से वर्तमान में कोई नहीं है, पर द्रव्यनिक्षेप से हैं। द्रव्यनिक्षेप नहीं मानने वाले को प्रतिक्रमण भी आवश्यक मानने का नहीं रहता और इससे भी आज्ञाभंग का महादोष लगता है।
भावनिक्षेप का विषय अमूर्त होने से अतिशय ज्ञानियों के सिवाय अन्य कोई भी इसे साक्षात् पहचान व समझ नहीं सकते हैं। इसी कारण श्री जैनसिद्धान्त में सम्पूर्ण क्रियाओं का नैगम, संग्रह, 'व्यवहार और ऋजुसूत्र इन चार द्रव्यप्रधान नयों की मुख्यता से ही वर्णन किया गया है। द्रव्य निक्षेप की प्रधानता वाली क्रियाओं को यदि व्यर्थ माना जाता है, तो जैनमत का लोप ही हो जाता है। . जैनसिद्धान्त को मानने वालों को द्रव्यार्थिक चारों नयों को मान्य रखकर द्रव्य-क्रिया का आदर करना उचित है। द्रव्यनिक्षेप की प्रधानता वाली क्रियाएँ परिणाम की धारा को बढ़ाने वाली हैं, जिससे भाव का परिपूर्ण निश्चय हुए बिना भी व्रतपच्चक्खाण आदि कराने की रीति श्री जैनशासन में चल रही है। श्री अनुयोगद्वार, श्री ठाणांग, श्री भगवतीजी तथा श्री सत्रकृतांग आदि अनेक सूत्रों में द्रव्यनिक्षेप की सिद्धि की हुई है और इस बात को सप्रमाण सावित कर दिया है कि द्रव्य के विना भाव कदापि सम्भव नहीं है।
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