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________________ परोपकारी महोपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज ने स्वोपज्ञवृत्ति सहित रचे हुए श्री 'प्रतिमाशतक' महाग्रन्थ में फरमाया है कि - नामदित्रयमेव भायभगवत्तादूप्यधीकारणम् । शाखात्स्यानुभवाच्च शुद्धहृदयैरिष्टं च दृष्टं मुहुः । तेनाहत्प्रतिमामनादृतवतां, भायं पुरस्कुर्यता - मन्धानामिव दर्पणे निजमुखालोकार्थिनां का मति:? ||1|| भाव-भगवन्त की तद्रूपपने की बुद्धि का कारण - नाम, स्थापना और द्रव्य - ये तीन ही हैं। शुद्ध हृदयवालों को यह बात शास्त्रप्रमाण से तथा स्वानुभव के निश्चय से बारम्बार प्रतीत हो चुकी है। इस कारण श्री अरिहन्त परमात्मा की प्रतिमा का आदर किये बिना ही श्री अरिहन्त परमात्मा के भाव को आगे बढ़ाने वालों की बुद्धि, अन्धे व्यक्तियों के दर्पण में देखने की बुद्धि के समान हास्यास्पद है। __इससे भी यह सिद्ध होता है कि भगवान की भावावस्था अतीन्द्रिय होने से इन्द्रिय तथा मन के लिए अगोचर है। उसे इन्द्रिय तथा मानसगोचर करने के लिए उनका नाम, आकार तथा द्रव्य का आलम्बन, यही एक साधन है। नाम, आकार और द्रव्य की भक्ति को छोड़कर केवल भाव की भक्ति करना या होना असम्भव है। 4. भाव निक्षेप जिन-जिन नामवाली वस्तुओं में जो-जो क्रियायें सिद्ध हैं उन-उन क्रियाओं में वे-वे वस्तुएँ वर्तती हों तब वह भावनिक्षेप कहलाता है - जैसे कि उपयोग सहित आवश्यक क्रिया में प्रवृत्त साधु भावनिक्षेप से आवश्यक गिना जाता है। प्रत्येक वस्तु का स्वरूप इस प्रकार चारों निक्षेपों से जाना जा सकता है। उनमें से यदि एक भी निक्षेप अमान्य हो तो वह वस्तु, वस्तु के रूप में टिकती ही नहीं। जिस वस्तु को जिस भाव से माना जाता है उसके चारों निक्षेप उसी भाव को प्रकट करते है। शुभ भाव वाली वस्तु के चारों निक्षेप शुभभाव को प्रकट करते हैं। मित्रभाव वाली वस्तु के चारों निक्षेप मैत्रीभाव को उत्पन्न करते हैं। कल्याणकारी वस्तु के चारों निक्षेप कल्याणभाव को पैदा करते हैं और अकल्याणकारी वस्तु के चारों निक्षेप अकल्याणभाव को पैदा करते हैं। ___इस संसार में सामान्य रूप से सारी वस्तुएँ हेय, ज्ञेय और उपादेय, इन तीनों में से किसी एक भेद वाली होती है। उदाहरण स्वरूप - स्त्रीसंग। साधुओं को स्त्रियों का साक्षात् संग निषिद्ध है। साक्षात् संग हेय है, अतः स्त्रियों का नाम, आकार एवं द्रव्य भी निषिद्ध हो जाता है। साधु पुरुषों के लिए स्त्रियों का भावनिक्षेप जिस प्रकार वर्जित है उसी प्रकार नामनिक्षेप से स्त्रीकथा का भी निषेध है; स्थापनानिक्षेप से स्त्री की चित्रित मूर्ति को देखने का -67 -
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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