SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तरफ के सम्मान का भाव जागृत करने तथा निरन्तर चालू रखने के प्रयत्न किये जाते हैं। श्री तीर्थंकरों के गुणों के जानने वाले ऐसा किये बिना रह ही नहीं सकते। कैसी भी प्रवृत्ति में पड़ा हुआ व्यक्ति भी इन वाद्ययंत्रों की आवाज से सिर ऊँचा उठाए बिना रह नहीं सकता। जाने-अनजाने भी आत्मिक उन्नति के योग्य बीजारोपण उसकी आत्मा में पड़ जाते हैं। वे बीज पत्तों के रुप में बदल कर भविष्य में बड़ा रूप धारण कर लेते हैं। श्री जिनमन्दिर की प्रतिष्ठित मूर्तियाँ तथा उनकी पूजा के महोत्सव आत्मोन्नति एवं आत्मविकास के अनन्य साधन है, धार्मिक जीवन के लक्ष्यबिंदु हैं तथा त्रैकालिक उत्तमोत्तम कर्तव्य हैं। क्यों कि छोटी-बड़ी धार्मिक प्रवृत्तियाँ प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में वहीं से उत्पन्न होती हैं। श्री जिनमन्दिरों की महिमा का वर्णन करते हुए एक विद्वान ने ठीक ही कहा है - "श्री जिनमन्दिर विकासमार्ग से विमुख प्राणियों को इस मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए अगम्य उपदेश देने वाले मूल्यवान ग्रन्थ हैं। पथभ्रष्ट भवाटवी के पथिकों को राह बताने के लिए प्रकाशस्तम्भ हैं, आधि, व्याधि व उपाधि के त्रिविध ताप से जली हुई आत्माओं को विश्राम के लिए आश्रयस्थान हैं। कर्म तथा मोह के आक्रमण से व्यथित हृदयों को आराम देने के लिए संगेहिणी औषधि हैं। आपत्ति रुपी पहाड़ी पर्वतों में घटादार छायादार वृक्ष हैं। संसाररूपी खारे सागर में मीठे झरने हैं। सन्तों के जीवन-प्राण हैं। दुर्जनों के लिए अमोघ शासन हैं। अतीत की पवित्र स्मृति हैं। वर्तमान के आत्मिक विलास भवन हैं। भविष्य का भोजन हैं। स्वर्ग की सीढ़ी हैं। मोक्ष के स्तम्भ हैं। नरक-मार्ग में दुर्गम पहाड़ है तथा तिर्यंचगति के द्वारों के विरुद्ध शक्तिशाली अर्गला हैं। " जिनेश्वर परमात्मा के गुणगान करने से पाप का नाश एवं पुण्य की वृद्धि तथा दोषों का क्षय एवं गुणों की प्राप्ति होती है। 事 परमात्म-भक्ति से उपसर्ग नष्ट हो जाते हैं, विघ्न की लताएँ समाप्त हो जाती हैं और मन प्रसन्नता से भर जाता है। 事 वासनाओं के नाश का एक मात्र उपाय निर्विकार परमात्मा की शरणागति है। 46
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy