SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रतिमा-पूजन की शाश्वतता| महान् उपकारी विश्ववन्द्य श्री वीतरागदेव की निर्विकार, शान्त, ध्यानावस्थित मुद्रा जगत्पूज्य है, सभी दुःखों का नाश करने वाली है तथा सभी सुखों की प्राप्ति का परम साधन है। फिर भी इस जगत् में उसी का विरोध करने वाला, उसके आगे जैसे-तैसे वाधा खड़ी करने वाला और पूजा के मूल को उखाड़ने में ही अपने जन्म की सार्थकता समझने वाला वर्ग भी है, इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। किसी विद्वान् ने ठीक ही कहा है कि - इस जगत् में ज्ञानी जितना उपकार कर सकता है उसकी अपेक्षा अज्ञानी अधिक अपकार कर सकता है। अज्ञान एक भयंकर वस्तु है। अज्ञान के कारण इस जगत् में जितने अनर्थ होते हैं उतने हिंसा आदि क्रूर पापकर्मों से भी नहीं हो सकते। सारे जगत् पर अज्ञान का साम्राज्य छाया हुआ है। इसकी छाया तले रहने वाली आत्मा जिन प्रतिमा और उसकी पूजा का विरोध करे, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। जगत् में ज्ञान की अपेक्षा अज्ञान अधिक है, सयुक्तियों की तुलना में कुयुक्तियों की मात्रा अधिक है, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि और निराग्रही आत्माओं से मिथ्यादृष्टि एवं दुराग्रही आत्माएँ अधिक हैं, यह बात श्री जिनप्रतिमा और उसकी पूजा के विरोधी प्रचारकार्य से प्रत्यक्ष प्रकट होती है। श्री जिनप्रतिमा उसकी पूजा करने वालों को प्रत्यक्ष रूप से अनेक लाभ देती रही है तथा सर्वसिद्धान्तवेदी सज्जन पुरुषों ने अपने अन्तःकरण से उसका समर्थन किया है फिर भी अज्ञान कुवासनाग्रस्त तथा आग्रह के कारण मतान्ध बने लोग उसका खण्डन करने में कछ भी बाकी नहीं रखते। प्रतिमा और उसकी पूजा के निषेधकों के मुख्य तर्क दो हैं। एक तो यह कि प्रतिमा जड हैं तथा दूसरी यह कि पूजा में हिंसा निहित है। इन दोनों तर्कों का सुयुक्तिपूर्ण एवं हृदयंगम जवाब इस पुस्तक में दी गई प्रश्नोत्तरी में मिल जायेगा। आगम मानने वालों को पंचांगी भी मान्य करनी चाहिए, प्रतिमा को नहीं मानने वाला 'स्थानकवासी' वर्ग भी किसी रूप में आगम में तो विश्वास करता ही है। प्रतिमा वीतराग के रूपी आकार की स्थापना है। परन्तु आगम तो श्री वीतराग के अरूपी ज्ञान की अक्षरशः स्थापना है। श्री वीतराग के साक्षात् आकार की स्थापना को नहीं मानने की हिम्मत करने वाले भी श्री वीतराग के अरूपी ज्ञान के
SR No.006152
Book TitlePratima Poojan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay, Ratnasenvijay
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2004
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy